सच्ची कविता के लिए

sachchi kawita ke liye

सविता सिंह

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सच्ची कविता के लिए

सविता सिंह

और अधिकसविता सिंह

    वह जो अपने ही मांस की टोकरी

    सिर पर उठाए जा रही है

    और वह जो पिटने के बाद ही

    खुल पाती है अंधकार की तरफ़

    एक दरवाज़े-सी

    जैसे वह जो ले जाती है मेरी रातों से चुराकर

    मेरे ही बिंब गिरती रात की तरह

    सब अपनी अपनी राहों पर चलती हुई

    कहाँ पहुँचती हैं

    किन हदों तक

    कविता की किन गलियों में गुम होने

    या निकलने वैसे मैदानों की तरफ़

    जिधर हवा बहती है जैसी और कहीं नहीं

    देखना है आज के बाद

    ख़ुद मैं कहाँ ठहरती हूँ

    एक वेग-सी

    छोड़ती हुई सारे पड़ाव यातना और प्रेम के

    किस जगह टिकती हूँ

    एक पताका-सी

    इतिहास कहता है

    स्त्री ने नहीं लिखे

    अपनी आत्मा की यात्रा के वृत्तांत

    उन्हें सिर्फ़ जिया महादुख की तरह

    जी कर ही अब तक घटित किया

    दिन और रात का होना

    तारों का सपनों में बदलना

    सभ्यताओं का टिके रहना

    उत्सर्ग की चट्टानें बनकर

    देखेंगी उन्हें जिन्होंने

    उठाए अपने दुख जैसे हों वे दूसरों के

    जो पिटीं ताकि खुल सके अंधकार का रहस्य

    और वे जो ले गईं मेरी रातों से उठाकर थोड़ी रात

    ताकि कविता संभव कर सकें

    कब और कैसे लौटती हैं अपनी देहों में

    एक ईमानदार सामना के लिए

    अपनी आत्मा को कैसे शांत करती हैं वे

    तड़पती रही हैं जो पवित्र स्वीकार के लिए अब तक

    कि सच्ची कविता के सिवा कोई दूसरी लिप्सा

    विचलित कर सकी उन्हें

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्वप्न समय (पृष्ठ 90)
    • रचनाकार : सविता सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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