रेहाना जब्बारी को याद करते हुए

rehana jabbari ko yaad karte hue

दीपक जायसवाल

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रेहाना जब्बारी को याद करते हुए

दीपक जायसवाल

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    रेहाना रोई धोई नहीं

    उसने आँसू नहीं बहाए

    उसने अपनी ज़िंदगी के लिए

    किसी से भीख नहीं माँगी

    ज़िंदगी भर अपनी माँ की तरह ही

    भद्र महिला बने रहने की कोशिश की

    उसने अंत तक इस धरती के लोगों

    और यहाँ के क़ानून पर विश्वास किया

    उसका फाँसी पर लटकाया जाना हम सबकी हार थी

    उन सारी सभ्यताओं की हार थी जो दावा करते हैं कि

    वे इंसानियत, समानता और न्याय के साथ खड़े हैं।

    रेहाना इस घटना से पहले

    एक इंटीरियर डेकोरेटर थी

    उसकी आँखें इस दुनिया को

    और बेहतर बनाने के सपने बुनती थीं

    वह अपने हाथों से दुनिया को

    और ख़ूबसूरत बना देना चाहती थी

    लेकिन महज़ उन्नीस साल की उम्र में उसे जेल

    और छब्बीस साल की उम्र में फाँसी दे दी गई।

    उसका अपराध बस इतना था कि

    बलात्कार के समय

    जब उसकी देह नोची जा रही थी

    उसकी आत्मा को ज़ख़्मी किया जा रहा था

    वह रोने-गिड़गिड़ाने निढाल पड़ जाने

    ख़ुद को हब्शी भेड़िए को सौंप देने के बजाय

    उसने प्रतिरोध का रास्ता अख़्तियार किया

    पूरी जान झोंक उस बलात्कारी भेड़िए से

    पूरी हिम्मत से आत्मरक्षा के लिए लड़ती रही

    फिर हुआ यह कि

    वह नृशंस भेड़िया रेहाना के प्रतिरोध में

    जान गँवा बैठा

    भेड़िए के चंगुल से बची रेहाना को

    उसके देश के मर्दवादी काले क़ानून ने

    फाँसी की सज़ा सुनाई।

    फाँसी से पहले रेहाना ने

    अपनी माँ को चिट्ठी लिखी—

    “मैंने जाना कई बार हमें लड़ना पड़ता है

    आपने मुझसे कहा था

    इंसान को अपने उसूलों को

    अपनी जान देकर भी बचाना चाहिए

    जब हम स्कूल जाते थे

    आप हमें सिखाती थीं

    झगड़े और शिकायत के समय भी

    हमें भद्र महिला की तरह पेश आना चाहिए

    आपके अनुभव ग़लत थे

    जब यह हादसा हुआ

    तो मेरी यह सीखी हुई बात

    काम नहीं आईं।

    रेहाना जैसे ख़ूबसूरत लोग

    इस दुनिया में जीने के सच्चे हक़दार थे

    लेकिन जिन क़ानूनों पर उसने

    अंत तक विश्वास बनाए रखा

    वे किसी अँधेरे गहरे कुएँ में लिखे गए थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीपक जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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