रंग जहाँ अपराधी होते हैं

rang jahan apradhi hote hain

अनुपम सिंह

अनुपम सिंह

रंग जहाँ अपराधी होते हैं

अनुपम सिंह

और अधिकअनुपम सिंह

    आईने के सामने खड़े होते ही

    झगड़ालू स्मृतियाँ परावर्तित होकर

    फैलाती हैं गहन अंधकार

    असभ्य स्मृतियाँ याद कराती हैं

    पहली अज़ान-सी दादी की अस्फुट ध्वनि

    गहरी रेखाओं से भरा पिता का पहला दर्शन

    बेसन के घोल-सा गाढ़ा अम्मा का मौन

    दादी रंगों को लेकर मुखर थीं

    कितनों की बेटियों को मार चुकी थीं ताना

    बिन ब्याही मर जाने का

    जैसे मैं उन्हीं में से एक हूँ

    जो मर गई थीं हिस्टीरिया में

    उग आई हूँ सब कुछ वापस करने

    पिता का ही रंग मिला था विरासत में

    मेरी नज़र में पिता ही अपराधी थे

    लोंगों के बीच अपना बचाव करती

    हाँ पिता पर ही गई हूँ मैं

    याद आती है वह लड़की

    जो दिन-दिन मेरे साथ खेलती

    खेल-खेल में बस जाता एक घर

    दुनियावी संबंधों की सहज ही

    अदला-बदली हो जाती

    उन दिनों जूठा खाकर सखी बनने का

    विश्वास था हमारे पास

    उसके पास मुझे पराजित करने का

    अचूक हथियार था मेरा कालापन

    काला रंग नहीं गाली की तरह लगता

    खिसिआहट में काली बिल्ली बन

    मैं गिरा देती वह घर घरौना

    उन दिनों हर खेल का अंत

    और अंजाम यही होता

    वे औरतें थीं जिनके पास बैठते ही

    मेरे साँस की तकलीफ़ बढ़ जाती

    जिनकी बात अक्सर बदल जाती

    फूहड़ फुसफुसाहटों में

    उनके लिए काली सौंदर्य की नहीं

    संहार की देवी थी

    जिसकी शक्ल मुझसे मिलती

    जबकि संहार वे मेरा करती थीं

    मेरे मस्तिष्क में ख़ून बड़ी मुश्किल से चढ़ता

    और उतरता किसी तूफ़ान की शक्ल में

    वे औरतें इस तूफ़ान से बिल्कुल अपरिचित थीं

    नहीं पढ़ पातीं मेरे चेहरे की बेचैनी

    जब मैं उन्हीं के बीच बैठकर मुस्कुराती

    वे हर समय व्यस्त दिखतीं

    जैसे किसी ख़रीद-फ़रोख़्त में

    वे गोरी लड़कियों के रिश्ते जोड़तीं

    भाई-भतीजे या किसी रिश्तेदार से

    वे भद्दा मज़ाक़ करतीं और बनावटी हँसी हँसतीं

    सुंदरता की व्यापारी वे औरतें

    ठीक मेरे पीछे खड़ी दिखाई दे रही हैं शीशे में

    शीशे के सामने उड़ रही हैं

    नई पुरानी कई तस्वीरें

    मानो तस्वीरों में चिढ़ाते हैं दोस्त

    मैं कितनी ईर्ष्यालु हो रही हूँ

    मेरा अपना प्रेमी चिढ़ाता है

    मैं कितनी हिंसक हो रही हूँ

    मेरी उपस्थिति के बाहर भी

    तस्वीरें गवाही देंगी कालेपन की

    इसलिए मैं कुतर रही हूँ

    सभी तस्वीरों से अपना चेहरा

    कम उम्र में अधिक पराजय दर्ज है मेरे नाम

    जाने कब से भर रहा है मुझमें

    पराजय का यह भाव

    एक दूसरा चेहरा उभरता है शीशे में

    बहुत पास से कहता है—

    लंबी साँस लो

    ये लो पानी पिओ

    क्या देखती रहती हो शीशे में

    मैंने कहा—

    शुक्रिया दीदी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुपम सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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