राम भरोसा

ram bharosa

बालमुकुंद गुप्त

बालमुकुंद गुप्त

राम भरोसा

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    राम तुम्हारो नाम सुन्यो तुम देखे नाहीं।

    कैसे हो तुम यहै सोच हमरे मनमाहीं॥

    वेदन और पुरानन तव लीला बहु गाई।

    सुनी पढ़ी हम हू कितनी तुम्हारी प्रभुताई॥

    त्रेतायुगमहं भयो सुन्यो हम राज तुम्हारो।

    और सुन्यो यह जगत बन्यो तुमहीं ते सारो॥

    कृत त्रेता द्वापर कलि इन चारहु जुगमाहीं।

    अचल राज महाराज तुम्हारो रहत सदाहीं॥

    रवि ससि ब्रह्मा इंद्र अंत सबही को आवै।

    रामराज को पार किंतु कोऊ नहिं पावै॥

    कला नसै चाँदनी छीन ह्वै ससि हो कारो।

    पै दूनो-दूनो चमकै प्रभु राज तुम्हारो॥

    हाथ जोर यक बात आज पूछ तुम पाहीं।

    अब हूँ हे प्रभु! राज तुम्हारो है वा नहीं॥

    सुन्यो दिव्य तव राज, दिव्य लोचन कहँ पावैं।

    जासों वह सुख अनुभव करि आनंद मनावैं॥

    आप दयाकर राज आपनो देहु दिखाई।

    हम तो अधिर भए हमैं रघुनाथ दुहाई॥

    तुमहिं करो प्रभु दया तुमहिं जासो हम जानहिं।

    गुणस्वरूप तुम्हरो अपने डर अंतर आनहिं॥

    सुन्यो तुम्हारो राज हतो दुखहीन सदाहीं।

    दीन दुखी वामें ढूँढ़ेहू मिलते नाहीं॥

    अंगहीन तन-छीन रोग सोकन के मारे।

    कबहु कोऊ सुने राम प्रभु राज तुम्हारे॥

    और सुनी हम राज तुम्हारे भयो कोई।

    अन्नहीन जलहीन प्राण त्याग्यो जिन होई॥

    पूत पिता के आगे काहू को नहिं मरतो।

    राज तुम्हारे पुत्र सोक कोऊ नहिं करतो॥

    और सुनी हम चोर जार लंपट अन्याई।

    सके कबहूँ रामराज के निकटहुँ जाई॥

    कबहुँ पर्यो अकाल मरी कबहूँ नहिं आई।

    अन्नहीन तृनहीन भूमि नहिं दई दिखाई॥

    वायु बह्यो अनुकूल इंद्र बहु जल बरसायो।

    सुखी रहे सब लोग रह्यो नित आनंद छायो॥

    धर्म-कर्म अरु वेद गाय बिप्रन को आदर।

    रह्यो तुम्हारे राज सदा प्रभु सब बिधि सुंदर॥

    पै हमरे नहिं धर्म कर्म कुल कानि बड़ाई।

    हम प्रभु लाज समाज आज सब धोय बहाई॥

    मेटे वेद पुरान न्याय निष्ठा सब खोई।

    हिंदूकुल-मरजाद आज हम सबहि डबोई॥

    पेट भरन हित फिरें हाय कूकुर से दर-दर।

    चाटहिं ताके पैर लपकि मारहिं जो ठोकर॥

    तुम्हीं बताओ राम तुम्है हम कैसे जानैं।

    कैसे तुम्हारी महिमा कलुषित हियमहं आनैं॥

    किंतु सुने हम राम अहो तुम निरबल के बल।

    यही रही है हमरे हियमहँ आसा केवल॥

    गुह निषाद हम सुन्यो राम छाती तें लायो।

    माता सम भिल्लनी गीध जिमि पिता जरायो॥

    यह हिंदूगन दीन छीन हैं सरन तुम्हारे।

    मारो चाहे राखो तुम ही हो रखवारे॥

    दया करो कछु ऐसी जो निज दसा सुधारैं।

    तुम्हारो उत्सव एकबार पुनि उरमहं धारैं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 584)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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