दो अर्थ का भय

do arth ka bhay

रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय

दो अर्थ का भय

रघुवीर सहाय

और अधिकरघुवीर सहाय

    मैं अभी आया हूँ सारा देश घूमकर

    पर उसका वर्णन दरबार में करूँगा नहीं

    राजा ने जनता को बरसों से देखा नहीं

    यह राजा जनता की कमज़ोरियाँ जान सके इसलिए मैं

    जनता के क्लेश का वर्णन करूँगा नहीं इस दरबार में

    सभा में विराजे हैं बुद्धिमान

    वे अभी राजा से तर्क करने को हैं

    आज कार्यसूची के अनुसार

    इसके लिए वेतन पाते हैं वे

    उनके पास उग्रस्वर ओजमयी भाषा है

    मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रंदन

    भाषा में शब्द नहीं दे सकता

    क्योंकि जो सचमुच मनुष्य मरा

    उसके भाषा थी

    मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो

    ख़तरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे

    तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा

    बेकार हो चुकी होगी

    एक नई भाषा दरकार होगी

    जिन्होंने मुझसे ज़्यादा झेला है

    वे कह सकते हैं कि भाषा की ज़रूरत नहीं होती

    साहस की होती है

    फिर भी बिना बतलाए कि एक मामूली व्यक्ति

    एकाएक कितना विशाल हो जाता है

    कि बड़े-बड़े लोग उसे मारने पर तुल जाएँ

    रहा नहीं जा सकता

    मैं सब जानता हूँ पर बोलता नहीं

    मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है

    पुलिस के दिमाग़ मे वह रहस्य रहने दो

    वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं

    जहाँ सुना नहीं उनका ग़लत अर्थ लिया और मुझे मारा

    इसलिए कहूँगा मैं

    मगर मुझे पाने दो

    पहले ऐसी बोली

    जिसके दो अर्थ हों

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 72)
    • संपादक : सुरेश शर्मा
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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