रात में अपना शहर

raat mein apna shahr

विजया सिंह

विजया सिंह

रात में अपना शहर

विजया सिंह

और अधिकविजया सिंह

    रात में अपना ही शहर कितना अजनबी और रहस्यमय लगता है

    इसके रास्ते किसी बेबाक कवि की हाज़िरजवाब ज़ुबान

    जिसके पास हर उत्तर का प्रश्न

    और हर सवाल का प्रतिसवाल है

    इसकी जगमगाती दुकानें कितनी थकी और बेजान नज़र आती हैं

    टहल सिंह का लाल और नीला जलता-बुझता कुक्कड़

    के.एफ़.सी. के सफ़ेद दाढ़ी वाले अमेरिकी अंकल को ठेंगा बता रहा है

    सोनी के शोरूम की फीकी नीली रोशनी फुटपाथ पर सोए लोगों पर मुर्दनी बिखेर रही है

    इसकी घायल झील चाँद के टेढ़े मुँह को डुबोने की नाकाम कोशिश में अब तक जुटी है

    इसके किसी चौराहे पर फ़िरोज़ी क़मीज़ पहने एक साइकिल सवार

    एक लड़की को देख मुस्कुरा रहा है

    वो लड़की यह जानते हुए कि दिन के उजाले में यह नौजवान उसे कभी नहीं पहचान पाएगा

    अपनी कार की खिड़की से बाहर झाँकते हुए उसकी ओर देख मुस्कुरा दी है

    बस यही उसकी आज़ादी की सीमा है

    सड़क के दोनों ओर अमलतास के पीले नखरीले झूमर

    हिल-हिल कर आने-जाने वालों का अभिनंदन कर रहे हैं

    पर लोगों का ध्यान फूलों पर कम पुलिस को चकमा दे निकल जाने में ज़्यादा है

    अमलतास की नर्म पंखुड़ियाँ सुबह सैर पर आने वालों के लिए स्वर्णिम ग़लीचा बिछा रही हैं

    पर यह कृतघ्न शहर उनकी इस उदार और दयावान भेंट को

    सिर्फ़ चलती गाड़ी के रियर मिरर में देखेगा

    बच्चे जो सड़क के उस पार भीख माँग रहे हैं, इस मुक्त वसंत के वारिस

    उन्हें यहाँ, इस ‘जनपथ’ पर आना मना है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विजया सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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