राजदूत

rajadut

व्योमेश शुक्ल

और अधिकव्योमेश शुक्ल

    थकी हुई और चुप उपेक्षा के बरामदे में वह खड़ी है

    अपने रोज़ मद्धिम होते कालेपन में

    जैसे कहती हुई बहुत साथ दिया तुम्हारा अब बस

    मुझे यहीं खड़े-खड़े पुर्ज़ा-पुर्ज़ा होने दो

    तुम्हारे बच्चों के बच्चे खेलें मुझसे

    किसी कल्पलोक में चले जाएँ मुझ पर बैठ

    अपने मुँह से एक विह्वल सच्ची ध्वनि निकालें

    जो संसार को मेरी इंजन आवाज़ लगे

    एक स्वाभिमानी गड़गड़ाहट

    जिसका अतिनिश्चित आवर्तन

    डगडगडगडगडगडगड

    यदि कोई एक्सीलेटर पर हाथ लगाए तो मेरी विश्वसनीय लयकारी कभी

    बेताल नहीं होती

    तुम्हारे बड़े बच्चे ने इसी पर साधा अपना तबला

    मेरे अविराम लहरे पर हुलसकर बजाता वह अपने मन में

    तीनताल एकताल झपताल धमार कहरवा दादरा

    इनके टुकड़े तिहाइयाँ चक्करदार परनें

    और ख़ुद ग़लती करे तो हर बार सम पर आता

    मैं झूम-झूम जाती

    तुम थरथरा जाते होगे उन क्षणों में कि अरे

    यह इसे क्या हो गया

    उससे छोटी संतान तुम्हारी बेटी को मैं जन्म के पहले से जानती हूँ

    माँ उसकी तुम्हारी पत्नी

    गर्भ में ले उसे जब-जब तुम्हारे साथ मुझ पर बैठतीं

    मैं साँय-साँय में गड़गड़ाना चाहती

    कि बच्चे की पहली से भी पहली नींद टूट जाए कहीं

    दुनियावी शोर से

    इस तरह वह सोती ही रहती

    हालाँकि सुनती भी रहती मुझे

    उसने तो इस क़दर सुना है मुझको

    कि अब भी सोचती है कि मेरी आवाज़ का लगातार ही समय बीतना है

    याद करो सत्तर के दशक के अंत और शुरू अस्सी में

    मैं ही फ़ैशन थी

    चिकनी काली कुछ ग्राम्य काया के साथ कूद पड़ी तब मैं

    तुम्हारे देश की ध्वस्त सड़कों पर

    उन्हें मैंने अपना माना वे मुझे अंतरंग तक बुलाती रहीं

    एस्कॉर्ट्स कंपनी की तब मैं चरम उपलब्धि हिंदी मेरा नाम

    ‘राजदूत’

    तभी किंचित् ठिंगना भी मेरा एक संस्करण आया

    लेकिन ख़ुद मुझे नापसंद था वह

    दया माँगता हुआ अपनी कातर पटपटाहट में

    अपने रूप गुण से मैंने ही पराजित कर डाला उसे

    जीजा जी की मौत के दु:ख में यह सोचना कि चलना छोड़ दूँ

    विश्वासघात होता तब तुम्हारे परिवार के साथ

    इसलिए समझते हुए कि मुझ पर ज़िम्मेदारियों का और ज़्यादा अब बोझ है

    मैं और निष्ठा और वेग से चली

    जैसे रुलाई रोकने का यही एकमात्र तरीक़ा हो

    मुझे तुमने श्मशान अस्पताल थाने कचहरी सिनेमाहॉल

    जन्मदिन पहाड़ झरने और कर्फ़्यू में खड़ा किया मैं खड़ी रही हिली नहीं

    किसी निर्बल उठाइगीरे के ख़िलाफ़ अपने वज़न से लगातार चुनौती बनी हुई

    कुछ यों मैंने तुमने मिलकर एक समय रचा जो अब कमज़ोर हुआ जाता है

    नए समय की महासड़क के सामने

    मेरा और तुम्हारा समय एक पगडंडी

    जिस पर अब भी मैं ही चल सकती हूँ

    लेकिन इस महासड़क पर मैं छूट-छूट जाती हूँ

    यहाँ महानायक चलते हैं महावाहनों पर

    एक लीटर में अस्सी किलोमीटर की बचत और इच्छाओं के वेग से

    महाबलशाली वाहन उनके महासमर्थ चालक

    महाविज्ञापनों के ज़रिए होता महाप्रचार

    मेरा तो दम फूल जाता है

    जल्दी-जल्दी प्यास लगती है

    और वह दिन तो मैं कभी नहीं भूलूँगी

    जब तुम्हारा एक शुभेच्छू तुमसे बोला था कि

    ‘यार इसे बेचकर और कुछ पैसे मिलाकर, एक साइकिल ख़रीद लो’

    वह पत्नीपीड़क घूसख़ोर क्या समझेगा मेरी अहमियत को तुम सोचे होगे

    लेकिन मैं जड़ हो गई

    और चकराते हुए तुम्हारे पैरों के बीच से ज़मीन पर गिरने लगी थी

    भला हो तुम्हारी जाँघों का मेरी पुरानी सहेलियाँ

    बचा लिया हमेशा की तरह उन्होंने मुझे

    लेकिन तय किया तभी मैंने अब सफ़र थामना होगा

    जो समाज लंबी वफ़ा के बदले आपको चुटकुला बना दे

    उम्र पर हँसे अपनी आत्महीनता में

    उसका तिरस्कार होना चाहिए

    तो यही तय किया है

    अब नहीं बनकर खड़े हो जाना है बरामदे में इस तरह

    जैसे तुम्हारी याद में

    स्रोत :
    • पुस्तक : फिर भी कुछ लोग (पृष्ठ 73)
    • रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2009

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