पटना के लिए

patna ke liye

अंचित

अंचित

पटना के लिए

अंचित

और अधिकअंचित

    दूसरे शहर की गायों से नहीं होता प्रेम

    वहाँ के कुत्ते अपने नहीं लगते

    वहाँ की सड़कें घर नहीं जातीं

    एक सुनसान बियाबान

    भीतर जगह बना लेता है

    निकलते ही—

    एक अदृश्य रेखा जो

    पार हो जाते ही डूबने लगता है दिल

    ख़ानाबदोशी से पहला वास्ता

    सूरज पहली बार सर पर

    मोहल्ले की गालियाँ पहली बार इनायत लगती हैं

    पहले घंटे में ही याद आने लगता है खिड़की से

    दिखता मंदिर का गुंबद.

    पटना,

    दूसरे शहरों के घाटों पर अपने प्रेम का पानी नहीं

    दूसरे शहरों के पेड़ों को देख कर नहीं जागती भूख।

    हमारी ख़ुशक़िस्मती कि जीवन के बहाव अपनी ओर थे

    एक घर था, एक छत थी, एक खिड़की भी।

    जड़ भर ज़मीन थी, भले समंदर नहीं था—

    हमें फिरना नहीं पड़ा निर्वासितों की तरह

    दुनिया ने नहीं छीना हमारा देश।

    पटना था इसीलिए गाजा नहीं था हमारे बुरे सपनों में

    पटना था तो रात गुज़ारने के लिए बुलाया जा सकता

    था कोई मेहमान।

    होंठ थे ख़्वाब में क्योंकि गोलघर था बचपन में

    आदमियत थी क्योंकि लोग थे, भीड़ नहीं थी।

    कविता में ठिठक सकते थे

    नींद में भटक सकते थे

    मैंने कोमलता जानी क्योंकि सड़कें घर से

    निकलती तो एक बालकनी के नीचे जाकर

    ख़त्म होतीं।

    दूसरे शहरों में कैसे होता ये

    जैसे कितना प्रेम जिया जाए दूसरों की

    कविता में।

    सफ़र पर निकलते ही घर याद आता है

    मेज़ पर पड़ी किताबें, सोमवार के काम

    इतना ही प्रयोजन सफ़र का

    इतनी ही सीमाएँ यात्राओं की

    दरवीश अपने घर कहाँ लौटता?

    सईद कहाँ याद कर पाता था बचपन!

    नेरुदा के जनाज़े को पूरे शहर ने सलामी दी—

    कितना हसीन ख़्वाब है ये

    कोई लंदन में दफ़्न हुसैन से पूछो, रोम में

    दफ़्न कीट्स से.

    जितना आगे बढ़ता हूँ, पीछे लौटने की

    इच्छा बढ़ती जाती है भीतर, हृदय में ख़ून की एक-एक

    बूँद ऊड़हुल का फूल बन कर दिखाई देती है

    छोटी सी झपकी में भी।

    कोई भी शहर हो

    पहले चुंबन की तरह याद आती है

    अपने शहर की गंध।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अंचित
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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