पूरी रात जागते हुए

puri raat jagte hue

माधव शुक्ल मनोज

माधव शुक्ल मनोज

पूरी रात जागते हुए

माधव शुक्ल मनोज

और अधिकमाधव शुक्ल मनोज

    उसने जो पहाड़ गढ़ा था

    वह बहुत बड़ा था

    ऊँचाई इतनी कि

    ऊपर चढ़ा नहीं जा सकता था।

    उसने अपने पाँव

    पत्थर के बनाए

    विचार झरने की तरह।

    वह पानी होकर

    बहना चाहता था

    किसी शिखर से

    एक पूरी नदी होकर?

    वह गुँजाना चाहता था

    पूरा बियाबान

    सन्नाटे में बजाना चाहता था सितार।

    वह किनारे पर होना चाहता था

    हरे-भरे वृक्षों जैसी क़तार।

    वह कवि की तरह

    पढ़ना चाहता था

    आसमान और पृथ्वी

    कहना चाहता था

    अपनी कविता

    फूल-पत्तियों पर बैठा

    ताज़ी हवा का हिंडोला

    झूलना चाहता था।

    पक्षियों की तरह

    चहचहाना चाहती थी

    उसकी इच्छा

    वंशी की तरह बजना चाहती थी

    उसकी अभिलाषा।

    समय का गीत-गाना चाहती थीं

    उसकी साँसें।

    मन के तारों को कसना चाहती थीं

    उसकी उँगलियाँ।

    पगडंडी नापना चाहती थीं

    उसके पाँवों की

    थकी-माँदी पिंडलियाँ।

    थिरकना चाहती थी

    उसकी देह

    चट्टान-सी पड़ी विवशता

    ठुमुकना चाहती थी

    ताल-लय पर।

    सौंदर्य छलकने को आतुर था

    उसकी आँखों में।

    घुमड़कर बरसना चाहता था।

    बूँद-बूँद होकर

    उसका शरीर।

    उसके श्रम से पृथ्वी

    खेत के आकार की हो सके

    और उगा सके फ़सलें।

    उसने काँटों की नोंक से

    अपनी सपाट गोल हथेली पर

    पूरी रात जागते हुए

    लिखी थी एक कविता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : साक्षात्कार 197-198 (पृष्ठ 127)
    • संपादक : ध्रुव शुक्ल
    • रचनाकार : माधव शुक्ल मनोज

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