पुनर्जन्म

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वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

पुनर्जन्म

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

    मैं यह सोच कर उन तक गया कि वह बताएँगे

    ख़ुद के महान बनने का रहस्य।

    मैंने देखा!

    उनका महान शोर

    और धैर्य को थकाता उनका मौन

    अहर्निश प्रतीक्षा

    और पाया, कि वह ज़रा भी नक़ली नहीं थे

    उनकी हँसी सबसे सहज थी

    फिर मुझे घड़े का मुँह मिट्टी की हँसी-सा लगा,

    और जान गया कि समुद्र का पसीना है उस पर तैरता फेन

    मैं समझ गया हर कुआँ, पृथ्वी की आँख है

    और गुफाएँ ग़ायब हो जाने का आग्रह

    नदी, पृथ्वी की पीठ पर सिल दी गई शिराएँ है पानी उनमें दौड़ता ख़ून

    मैंने सोचा मैं कौन हूँ?

    मैं उनके और पास गया

    और देखा सहेजने का उनका क्रम सबसे प्राचीन है

    और दुःख की स्मृति उनमें सबसे कम है

    उन्होंने रंगों की भाषा चुन ली थी

    वह जितने प्राचीन थे

    उतने ही युवा,

    जितने बड़े जानकार

    उतने ही बड़े खोजकर्ता

    जीवन की गंध से घुले हुए वह पेड़ो की तरह उग आते थे

    और चींटियों की तरह चुप-संवाद में माहिर

    पहाड़ की तरह हमेशा बने रहने के सुख से भरपूर

    वह काले हॉर्नबिल को उसका पहला गोता लगाना सिखा रहे थे

    और मछली के कान में कह रहे थे

    समुद्र की तलहटी में छुपा है तुम्हारे चिड़िया बनने का रहस्य!

    वह इतने बड़े न्यायकर्ता थे,

    कि जब मैंने जाना मेरी नश्वरता मेरा सबसे बड़ा सच है

    तो मेरे हाथों में मेरे समय को रख कर उन्होंने कहा

    बस इसमें बने रहो!

    फिर किसी पुनर्जन्म की गुप्त घोषणा-सा

    मैं ख़ुद में लौट आया।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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