पैसे

paise

प्रियदर्शन

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    एक

    बहुत पैसे कमाता हूँ
    ज़रूरत, शौक़ या दिखावे पर ख़र्चने के लिए
    अब सोचना नहीं पड़ता। 

    मॉल और मल्टीप्लेक्स में धड़ल्ले से जाता हूँ
    अब पहले की तरह डॉक्टर के पास जाने के पहले नई सेलरी का इंतज़ार नहीं करना पड़ता
    या महीने के आख़िर में मेहमानों के चले आने पर पैसे का इंतज़ाम नहीं करना पड़ता
    इसके बावजूद न फ़िक्र घटती है 
    न तनाव कम होता है
    उल्टे वह बढ़ता जाता है
    सबसे ज़्यादा बढ़ती है असुरक्षा
    उससे कुछ कम, लेकिन फिर भी काफ़ी, बढ़ जाती है अतृप्ति। 
    सबसे कम बढ़ती है खुशी
    बल्कि उसे खोजना पड़ता है,
    उसका इंतज़ाम करना पड़ता है
    जिसमें बहुत पैसा लगता है
    और ये भ्रम भी बनता है
    कि और पैसा होगा तो और ख़ुशी ख़रीद लाएँगे हम
    धीरे-धीरे यह भ्रम यक़ीन में तब्दील होता जाता है
    फिर ज़रूरत में और अंत में आदत में 
    इस बीच पैसा कमाने की दौड़ बड़ी होती जाती है
    हाँफती हुई उम्र अपने लिए उल्लास की तलाश में निकलती है 
    और बाज़ार जाकर लौट आती है—
    किसी कचोट के साथ महसूस करती हुई
    कि ज़िंदगी तो छूट गई पीछे। 

    दो

    बहुत पैसे कमाता हूँ
    लेकिन तब भी कुछ लोगों के आगे कम लगते हैं
    क्योंकि जो ऊपर हैं वे बहुत ऊपर हैं
    जिस रफ़्तार से मैं पैसे कमाता हूँ
    उस रफ़्तार से मुकेश अंबानी जितने पैसे कमाने के लिए
    मुझे 72,000 जन्म लेने पड़ेंगे
    या क़रीब इतने ही लोगों के जीवन से खेलना पड़ेगा
    इतनी उम्र या इतनी ताक़त
    मानव रहकर तो नहीं आ सकती
    उसके लिए शायद राक्षस जैसा कुछ बनना पड़ेगा
    जबकि यह अभी ही लगता है,
    पैसे भले कुछ बढ़ गए हों
    मनुष्यता कुछ घट गई है 
    अपनी भी और अपने आस-पास भी 
    आवाज़ें सुनाई नहीं पड़तीं, दृश्य दिखाई नहीं पड़ते
    लोग बहुत दूर और पराए लगते हैं
    उनका कोई सुख-दुख छूता-छीलता नहीं
    अपने सुख-दुख का भी पता कहाँ चलता है
    जब कभी आईना देखता हूँ तो पाता हूँ
    कोई अजनबी खड़ा है सामने
    पूछता हुआ, कहाँ खो गए तुम? 

    तीन

    निकला नहीं था मैं पैसे कमाने
    भटकता हुआ आ गया इस गली में 
    इस भ्रम में आया कि यहाँ शब्दों का मोल समझा जाता है
    ये बाद में समझ पाया कि यहाँ तो शब्दों की पूरी दुकान लगी है
    मुझे लोगों ने हाथों-हाथ लिया
    क्योंकि शब्दों के साथ खेलने का अभ्यास मेरा खरा निकला
    जिसने जैसा चाहा उससे कहीं ज़्यादा चमकता हुआ लिखा
    जितनी जल्दी चाहा, उससे जल्दी लिखकर दिया
    लेख लिखे, श्रद्धांजलियाँ लिखीं, कविता लिखी, कहानी लिखी,
    साहित्य की बहुत सारी विधाओं में घूमता रहा
    किताबें भी छपवा लीं
    संकोच में पड़ा रहा, वरना दो-चार पुरस्कार भी झटक लेता
    हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में जोड़े ढेर सारे पन्ने
    और हर पन्ने की पूरी क़ीमत वसूल की
    लेकिन यह करते-कराते, कभी-कभी लगता है
    खो बैठा उस लेखक को, जो मेरे भीतर रहता था
    दुख सहता था और संजीदगी से कहता था
    कभी-कभी जब उससे आँख मिल जाती है
    तो अपनी ही कलई खोलती ऐसी बेतुकी कविता सामने आती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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