प्रेम की दक्षता

prem ki dakshata

बलराम शुक्ल

बलराम शुक्ल

प्रेम की दक्षता

बलराम शुक्ल

और अधिकबलराम शुक्ल

    कविता, पहले नई-नवेली दुल्हन की तरह थी

    सिमटी-सी, ठिठकी-सी, लजीली-सी

    जिसकी ध्वनि कभी-कभी सुनाई दे जाती थी।

    जो हज़ार मिन्नतों के बाद

    कभी, कहीं और किसी तरह

    रहस्यता को प्राप्त हो पाती थी।

    वही कविता वनिता अब मेरे लिए

    नवों रसों को लेकर तैयार,

    मधुर वर्णों के नाते अत्यंत रुचिकर,

    सद्गुणों का प्रदर्शन करती हुई

    पर्याप्त उज्ज्वल अलंकारों से सजकर

    मनोऽनुकूल रीतियों से ध्वनित होती हुई

    सारे छंदों की लोच अपने अंदर समोए हुए

    प्रतिदिन मध्यमा नायिका की तरह

    उत्कंठा में भर कर मेरी राह तकती रहती है

    जैसे प्रोषितपतिका

    अपने परदेसी पति का इंतज़ार करती है

    जिस मुग्धा कविता कामिनी के पीछे

    पहले मैं एक रसिक लंपट की तरह

    भागा करता था

    प्रेम की शराब के कारण

    अब वही मुझसे प्रौढ़ा की तरह प्रगल्भताएँ करती है

    प्रेम की आग!

    कितनी कुशल है देखो,

    जो अदग्ध दहन के द्वारा

    दोनों पक्षों को अनुराग से प्रदीप्त करके उज्ज्वल बना देती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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