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विष्णु खरे

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विष्णु खरे

और अधिकविष्णु खरे

    अठारह वर्ष की उम्र से मैं उन आँखों की

    इस चमक को जानता हूँ—यह नीली कौंध

    जिसकी चिंगारियाँ पिघलती हुईं

    सीधी आत्मा नामक किसी चीज़ में समा जाती हैं

    संगीत के उस स्वरूप मे ढलती हुईं जिसे शायद

    सिर्फ़ ओइस्त्राख़ जानता होगा अपने अमाती पर

    मोत्सार्ट की व्याख्या करता हुआ

    और हालाँकि अब मैं अड़तीस का हूँ

    और सुंदर तो कभी नहीं था

    कुछ बरसों से बालों को सामने ऊँछता हूँ

    और पतलून पर ढीले कुर्ते या बुश्शर्ट पहनाता हूँ

    किंतु यह ख़तरनाक चमक दिखती ही रही है बीच में

    जो सारा दिन दमकती रहती है

    वत्सला स्त्री की आँखों में

    जब उसका पुरुष बहुत दिनों बाद उससे मिलता है

    मैंने ही ऊपर देखा था उसकी तरफ़

    अपनी किताब के ऊपर से तटस्थ

    उसने भी अपेक्षाकृत महँगे कॉलेज में पढ़ने वाली

    व्यस्त नज़र मुझ पर डाली—किंतु क्षण के एक हिस्से में

    वह एक सजग और स्पंदित निगाह में परिवर्तन थी

    और उसने अपनी मित्र से अनायास ही कहा—

    लैट्स सिट हियर एह्वाइल

    —मुझसे उनकी दूरी कोई तीन गज़ है

    और खुली हुई खिड़की मेरे एकदम पीछे

    लड़की तुम किस घटना की आशा में रुकी हुई हो

    इस वक़्त तुम्हारे दिल के रास्ते शरीर में क्या गूँज रहा है

    यहाँ तुम अपनी किन अनाम भावनाओं में परवश हो

    यह शायद तुम नहीं पहचान रही होगी

    लेकिन मुझे देखो मैंने इस बीच

    तुम्हें तीन बार ही अपनी अभ्यस्त तटस्थता से देखा है

    किंतु बीस वर्षों के मेरे खुरदरे अनुभवों के सख़्त रोएँ

    तुमसे लगातार आती हुई सनसनाहट के संकेतों से लग खड़े हैं

    अपनी अबोधता को खोए

    और स्त्री-पुरुष शतरंज की चालों को अख़्तियार करने के

    पिछले बीस वर्षों में मैंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं

    और ऐसे क्षणों की सफल अर्धसफल निष्फल परिणितियों तक गया हूँ

    किंतु लड़की मेरे पास अब इतना धैर्य नहीं

    कि विसंगत चीज़ों की एक अंततः धोखादेह शुरुआत हो

    जिसके तार्किक परिणाम के बाद दिमाग़ के कोनों में

    एक भेड़िए के मर जाने के बाद उसके रोने की गूँज जम जाए

    इसलिए मेरी आँखें निर्लिप्त थीं और चेहरा रेखाहीन

    क्योंकि तुम्हें देखता हुआ

    मैं बदले हुए ख़ुद को भी देख रहा था

    ब्रिटिश काउंसिल की चक्करदार सीढ़ियों से उतरते हुए

    वह अचानक बहुत चुप हो गई थी या मुखर

    कोने में बैठे उस आदमी के बारे में

    उसने क्या कितना दूर तक सोचा

    यह कहना-जानना कठिन और शायद व्यर्थ भी है

    किंतु जाने के क्षणों की उस छटपटाहट में

    जो एक बदल देने वाले असमाप्त अनुभव को

    अंतिम चरण तक अपने ऊपर से गुज़र जाने देने की तड़प है

    मैं जो कुछ उस पर हो रहा था

    उसकी करुणा से हिल उठा और संभव है

    मैं उठता और जिस तरह आदमी कभी-कभी

    अपनी बहन पुत्री या प्रेयसी का हाथ मंद्र लाड़ में पकड़ता है

    और कुछ दूर तक खींचे-सा लिए जाता है

    उस तरह उसे ले जाता

    समय और शरीर के बिसूरने को एक भाव-भीना आदर्श देता

    —अब तुमने ठीक-ठाक देख लिया है और शायद

    समझोगी कि मैं क्यों चुप था और सिर्फ़ देख रहा था—

    बल्कि कहता प्यारी मासूम लड़की शायद तुम्हें कोई भ्रम नहीं है

    शायद तुमने अपने ताज़ा एहसास में सब कुछ समझ लिया है

    शायद तुम सारे जोखिम उठाने के लिए तैयार हो

    जो डर और साहस कुरूपता और सौंदर्य

    और शरीरों और आवेगों के टकराव के अंतराल के बाद

    तुम्हें और मुझे और भी समृद्ध करते हुए—

    तुम्हें और औरत बनाते हुए मुझे और आदमी—

    लेकिन फिर भी आत्मा को थोड़ा कड़वा और कांतिहीन बनाते हुए

    अपराधी रातों के तीसरे प्रहर के अंत में

    तुम्हें उन प्रश्नों की ओर ले जाएँगे

    जिनका कोई संतोषप्रद जवाब अब तक नहीं है—

    स्त्रियों और पुरुषों के दरम्यान वह क्या है जो रिश्तों को ऐसा बना देता है

    आदमी और औरत की ज़िंदगी का अर्थ क्या है और किसके हाथ में है

    और कहता कि इस क्षण मैं तुम्हें एक संबंध दे सकता था

    लेकिन होने के अभी बहुत सारे विकल्प हैं

    उनमें से चुनो और जीवन के वैविध्य को किसी और तरह से चरितार्थ करो

    किंतु मैं नहीं उठा और दौड़कर मैने उसे नहीं छुआ

    क्योंकि मैं सोचना चाहता था कि जो लड़की चली गई

    वह एकदम वह नहीं थी जो कि आई थी

    इसे उस सार्थक पीड़ा का प्रारंभ ही रहने दो

    जिसकी छटपटाहट मानव व्यापारों के केंद्र में है

    वह थोड़ा बदल गई वह कुछ दिनों बाद पहचान लेगी

    और यह बदलना उसमें ज़्यादा ख़ुद होना भर गया है

    बदलते जाने की यह लपट उसे घेरती जाएगी

    अपनी तरह की ज़िंदगी जीते हुए जब एक शाम

    व्यतीत को वह एक तरतीब में देखने की कोशिश करेगी

    तो शायद उसे अपने कभी बीस वर्ष की होने

    और यहाँ ठिठकने की भी याद आएगी

    छिटक जाएँगी वही नीली चिंगारियाँ

    एक पल के लिए शाम के ख़ामोश कमरे में

    और वह धीमे ले हँसेगी उस निस्संकोच पूरी औरत की तरह

    जिसके लिए कोई भी स्मृति

    पछतावा बचपना या हसरत नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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