लाल के बारे में

lal ke bare mein

प्रकृति करगेती

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प्रकृति करगेती

और अधिकप्रकृति करगेती

    लाल रंग कविता की तरह कौंधता है

    लाल के बारे में बहुत सोचती हूँ

    और सोचना हमेशा गुलाल से शुरू होता है

    पहली बार तब सोचा था जब हॉस्टल में

    बाक़ियों की होली में, ख़ुद को अकेले छुपाकर बैठना हुआ था

    लड़कियाँ कच्ची लकड़ी के कच्चे दरवाज़ों के सामने खड़ी होकर

    आवाज़ लगा रही थी

    उनके खेल में शामिल होकर वापस आई तो

    पूरे शरीर से झाड़ा मैंने लाल

    बस दाएँ हाथ की उँगलियों के पोरों पर टिके रहने दिया

    तब, अँगूठा और अनामिका, जैसे औरत और आदमी बन गए,

    जैसे आदम और हव्वा बन गए

    उस पहले से ही मसले हुए, पिसे हुए लाल को और मसलते-पीसते हुए

    ख़ुद को ख़ुद से बुदबुदाते हुए पाया

    कि अब जब वह पूछेगा कि तुम्हें क्या बनना है

    तो इस बार तुम्हारे पास जवाब होगा कि रंग बनना है, वह भी लाल

    कितने अलग हैं हम, कि वह ब्लू-व्हेल बनना चाहता है

    पर कितने समान भी कि वह व्हेल बनकर पानी में कंपन पैदा करता संगीत बनाना चाहता है

    रंग और ध्वनि दोनों कंपन के सिद्धांत से बनते हैं

    दोनों की समानताओं पर शोध चल रहे हैं

    पर दोनों को अलग रखते हुए

    मैं भी कविता कहने इन्हें बस इतना ही साथ लाई हूँ कि

    ‘कविता में माफ़ है सब कुछ’ की सीमा लाँघूँ

    बस इस इच्छा के साथ डोलते हुए कि

    “अल्ट्रा, इंफ़्रा के पैमानों पर उसका संगीत और मेरा लाल रंग

    रात के सायों में हमेशा रीढ़ से मुक्त हो जाएँ”

    मैं मृत्यु के लाल को बिल्कुल पास नहीं लाती!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकृति करगेती
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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