लाल बत्ती

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    लाल बत्ती पर जैसे ही तुम मारते हो ब्रेक और आगे-पीछे दाएँ-बाएँ लगी गाड़ियों का जायज़ा लेने की कोशिश करते हो, एक ठक-ठक सी सुनाई पड़ती है शीशे पर और तुम चौंक कर देखते हो—एक चेहरा जिसे देखते हुए डर लगता है—कोई इशारा कर रहा है—अपने रक्त सूखे दाग़दार मुँह की तरफ़ या गोद में पड़े पट्टियों से बँधे हुए एक छोटे-से बच्चे की तरफ़... बस पीछा छुड़ाने की ही ग़रज़ से तुम जेब या कार में बनी दराज़ देखते हो और अगर कोई छोटा-सा सिक्का मिल जाए तो शीशा नीचे कर उसकी तरफ़ बढ़ा देते हो।

    बत्ती हरी हो जाती है, कारें निकल जाती हैं... तुम भी लाल बत्ती से निकल आने की राहत या रफ़्तार का मज़ा लेने लगते हो।

    यह रोज़ का क़िस्सा है जो तुम्हें अक्सर संशय में डाल देता है कि ऐसे भिखमंगों के साथ क्या किया जाए।

    आख़िर रोज़-रोज़ जाने-पहचाने रास्तों पर दिखने लगें वही जाने-पहचाने चेहरे जो चमकती, बंद, आरामदेह गाड़ी में चल रहे तुम्हारे सफ़र को कुछ बेरौनक़, कुछ किरकिरा कर दें; जो तुम्हें याद दिलाएँ कि तुम्हारी बढ़ रही संपन्नता सड़क पर दिखने वाली ग़रीबी के मुक़ाबले लगभग अश्लील है और सबसे ज़्यादा तुम्हें ही चुभ रही है तो तुम्हारे भीतर कुछ ऊब, कुछ खीझ और कुछ आत्मग्लानि से मिली-जुली एक ऐसी वितृष्णा पैदा होती है जिसमें तुम उस ठक-ठक करते भिखमंगे की तरफ़ ही नहीं अपनी तरफ़ भी देखना बंद कर देते हो।

    फिर तुम तलाशने लगते हो वे तर्क, जिनके सहारे ख़ुद को दे सको तसल्ली कि इन भुक्खड़ों को भीख देकर, उनकी आवाज़ सुनकर, उनकी तरफ़ देखकर तुम बिल्कुल ठीक करते हो।

    ऐसे मौक़ों पर कई तर्क तुम्हारी मदद में चले आते हैं :

    सबसे पहले तुम याद करते हो दिल्ली पुलिस का वह क़ानून जो लाल बत्ती पर भिखमंगों को सिक्के देने से मना करता है फिर तुम याद करते हो वे ख़बरें जो बताती हैं कि भिखमंगों का ये पूरा गिरोह है जो खाए-पिए अघाए और रेडलाइट पर रुके लोगों की आत्मदया के सहारे चल रहा है कि यहाँ भीख मांगने के लिए बड़े और बच्चों के बाक़ायदा हाथ-पाँव तोड़े जाते हैं और तुम सिहरते हुए सोचते हो कि तुम्हारी दया जाने कितने ऐसे मासूम बच्चों के लिए उम्र भर का अभिशाप बन रही है धीरे-धीरे तुम ख़ुद को आश्वस्त करने की कोशिश करते हो और उनकी तरफ़ देखना बंद कर देते हो यह समझते हुए भी कि सारे तर्कों के बावजूद दिसंबर की सर्द रात में यह जो ठिठुरती-सी औरत अपने बच्चे को चिपकाए लाल बत्ती पर तुम्हारी दया पर दस्तक दे रही है उसे तर्क की नहीं, बस कुछ सिक्कों की ज़रूरत है—उतने भर भी उसके लिए ज़्यादा हैं जो तुम सिगरेट पीने की वैधानिक चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए रोज़ सिगरेट में उड़ा देते हो या फिर जिससे कई गुना ज़्यादा पैसे तुम्हारे बच्चे के किसी पाँच मिनट के खेल में लग जाते हैं। कई बार तो तुम बस इसलिए पैसे नहीं देते कि गर्मियों में एसी कार के शीशे उतारने की ज़हमत कौन मोल ले।

    धीरे-धीरे तुम्हारी झुँझलाहट और हैरानी बढ़ती जाती है कि आख़िर सरकार या पुलिस कुछ करती क्यों नहीं इन भिखारियों को रास्ते से हटाने के लिए? कभी बत्ती के लाल से हरा होने के दौरान कोई कुचल कर मारा गया तो तुम्हीं गुनहगार ठहरा दिए जाओगे।

    तुम अपने ईश्वर से जिसे तुम बाक़ी मौक़ों पर याद नहीं करते, मनाते हो कि कभी तुम्हें किसी ऐसे हादसे का हिस्सा होना पड़े।

    लेकिन यह रोज़ का किस्सा है जो अपने दुहराव के बावजूद, तुम्हारे सारे तर्कों के बावजूद तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता।

    लाल बत्ती के बाद भी वे चेहरे बने रहते हैं जो तुम्हारी रफ़्तार में कुछ ख़लल डालते हैं, इन्हें भुलाने की बहुत सारी कोशिशों के बावजूद तुम ख़ुद से पूछने से बच नहीं पाते कि आख़िर लाल बत्तियों पर तुम्हारी ओढ़ी हुई तटस्थता तुम्हें चुभती क्यों है?

    हैरान करने वाली बात है कि इन सबके बावजूद तुम कुछ करते नहीं—यह निश्चय भी नहीं कि अपनी दुविधा से उबरने के लिए तुम लाल बत्ती पर दिखने वाले चेहरों को रोज़ कुछ सिक्के दे दिया करोगे, क्योंकि शायद यह एहसास तुम्हें है कि इस दुनिया में कंगालों और भिखमंगों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि तुम चाहकर भी सबकी मदद नहीं कर सकते, सबका पेट नहीं भर सकते।

    कभी इस एहसास को ठीक से टटोलो तो और भी नए और हैरान करने वाले नतीजों तक पहुँचोगे तब लगेगा कि दूसरों के ज़ख़्म सने चेहरों जितना ही भयानक है तुम्हारा चेहरा भी जिसे तुम ख़ुद देख नहीं पा रहे हो, लेकिन यह असुविधाजनक सवालों से बच निकलने का कौशल ही है जिसके सहारे तुमने तय किया है इतना लंबा सफ़र।

    एक छोटी-सी रेडलाइट के उलझाने वाले साठ सेकेंड, तुम्हें या तुम्हारे सफ़र को कैसे रोक पाएँगे?

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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