निज़ामुद्दीन

nizamuddin

देवी प्रसाद मिश्र

देवी प्रसाद मिश्र

निज़ामुद्दीन

देवी प्रसाद मिश्र

और अधिकदेवी प्रसाद मिश्र

     

    एक

    पतली-सी गली में गाय और उसकी बग़ल से एक औरत एक दूसरे
    को लगभग छूते हुए गुज़र जा रहे हैं और दोनों ही के पेट में बच्चा
    है और दोनों ही थके हुए हैं और दोनों में से किसी को घर पहुँचने
    की जल्दी नहीं है और इन दोनों के बीच से एक आदमी निकल
    रहा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पुलिस का आदमी है
    और लोगों पर निगाह रखने का काम करता है और इन तीनों के
    बग़ल से पतंगों को लेकर तेज़ी के साथ एक लड़का निकला और
    फिर बुरके में एक औरत सामने से आती हुई दिखी जिसके पास
    ये सहूलियत तो है ही कि वह जिस तरह से चाहे रो ले या कितने
    भी वाहियात तरीके से हँस ले। गली में बहादुरशाह जफ़र को
    गिरफ़्तार किए जाने की ख़बर नई जैसी ही है और उतनी ही नई
    है बम धमाके के मामले में एक आदमी की गिरफ़्तारी की ख़बर।
    कोने के रेस्तराँ में एक आदमी एक मेज़ पर कोहनी रखकर बैठा
    है जिसका आमलेट उसके सामने पड़ा है। ठंडा और ख़त्म। इसका
    पता हो सकता है कम को हो कि एक सुरंग खोदी गई है जिससे
    होकर लोग गुजरात से निज़ामुद्दीन आया-जाया करते हैं। यह सुरंग
    अंदर ही अंदर खोने और होने की तरह रही है। कई अफ़वाहें रही
    हैं निजामुद्दीन के बारे में।

    दो

    गली से निकला तो एक
    पेड़ मिल गया और गिन कर
    बता सकूँ तो इक्कीस चिड़ियाँ
    थोड़ा और बढ़ा
    तो पता लगा सत्रह बच्चे मिले

    और एक पेड़ के बाद इक्कीस और पेड़

    यह उस रास्ते का हाल है जिसे मैं हिंदी साहित्य की तरह बियाबान
    वग़ैरह कहता रहा था

    फिर जो लड़की मिली वह तो
    तीसरी या चौथी परंपरा सरीखी थी। दुबली-सी।

    पता ये लगा कि वह ज़ीनत थी
    जो मेरठ यूनिवर्सिटी से बी.ए. करने के बाद
    इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से
    अँग्रेज़ी में एम.ए. करना चाहती थी

    मतलब कि जिस लड़की ने कभी
    1857 में अँग्रेज़ों को बाहर करने की मुहिम चलाई थी

    तीन

    रहीम के मक़बरे में टहलते हुए ये लगता है कि रहीम अब मिले कि तब। वो नहीं मिलते हैं और एक कवि के दूसरे कवि से मिलने का हादसा फ़िलहाल तो टल जाता है। मक़बरे में घूमते हुए कबूतरों के फड़फड़ाने की आवाज़ें गूँज रही हैं और इस तरह की आवाज़ें कि भइये पानी रखना! मक़बरे में मैं घूम रहा हूँ। वहाँ कोई आने वाला है कि मैं किसी के चले जाने की गूँज में टहल रहा हूँ। कि जैसे हिंदी के बियाबान में अपनी ही क़ब्र के चारों तरफ़। एक फ़ोन आ रहा है—हो सकता है इस बात का कि जो क़यामत हिंदी कविता को तबाह कर देगी वह आ रही है और सराय काले ख़ाँ तक वह पहुँच भी गई है।

    चार

    हेलो... ठीक है... हम दोनों निज़ामुद्दीन में ग़ालिब की क़ब्र के पास की चाय की दुकान में चले चलेंगे। वहाँ आस-पास शोर तो बहुत होता है और बच्चे ऐसा कोहराम मचा रहे होते हैं कि पूछिए मत—लगता है कि मरदूदों को ख़ुश होने से कोई नहीं रोक सकता। भूख तक नहीं। लेकिन अब और कहाँ मिला भी जाए—शहर में एक ढंग की जगह मिलेगी भी तो उससे पचास गज़ की दूरी पर एक औरत के उलटी करने की गों-गों सुनाई न पड़ जाएगी, इसकी क्या गारंटी।

    अब आपसे क्या छिपाना
    मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूँ

    बस, आप मिलिए और

    शिनाख़्त के लिए बता दूँ कि चाय की दुकान में
    मैं लाल रंग की पतंग लेकर मिलूँगा जो
    इस रंग से मेरा आख़िरी नाता होगा

    उसके बाद मैं उसे उड़ा दूँगा। हमेशा के लिए।
    ज़ाहिर है आसमान में।

    लेकिन आपको मैं पहले ही आगाह किए देता हूँ
    कि आपको मुझे ढंग से समझाना होगा
    केवल एक वक़्त का दाल-चावल खाकर
    मैं आपका होने से रहा

    पाँच

    इंतज़ार में बैठे-बैठे बहुत तेज़ जमुहाई आई 
    मन में क्यों कोहराम मचा है दिन का कचरा रात गँवाई 
    कहाँ बहुरिया ग़ुम है बालम बल्लम दिखता नोक दिखाई 
    ज़िंदा रह कर क्या कर पाए मरने पर क्यों तोप चलाई 
    कौन इलाक़ा बदले अपना क़व्वाली में कजरी गाई 
    पूँजी इतना गूँजी है कि जो भी थी आवाज़ गँवाई 
    आओ ख़ुसरो इस झोपड़ में जो चूता है सेज सजाई 
    ग़ालिब यहीं कहीं होते हैं लोग नहीं तो बकरी आई

    छह

    अब इसका क्या किया जाए कि शाइरों की क़ब्रों पर बकरियाँ काफ़ी घूमा करती हैं फिर वो नज़ीर की क़ब्र हो या एक वक़्त में ग़ालिब की ही। असद ज़ैदी ने अपने शरारती अंदाज़ में जब यह ठहाके लगाते हुए कहा तो मैंने उनसे ये नहीं कहा कि इस बात को हिंदी कविता के तौर पर कह देने में तो कोई हर्ज़ नहीं। यों भी मैं यह थोड़े ही कह रहा था कि हिंदी कविता में बाज़ाब्ता नज़ीर अकबराबादी को शामिल किया जाए गोकि इस माँग-पत्र की कोई न कोई कार्बन-कॉपी मेरे पास होती ज़रूर है और वह मेरे मरने के बाद मेरी किसी जेब में मिलेगी फिर आप मुझे गाड़ें, जलाएँ या फिर चीलों के हवाले कर दें। मतलब कि आप गाड़ेंगे तो वहाँ बकरियाँ आया करेंगीं, जलाएँगे तो मुझे गंगा के नाले के हवाले होना पड़ेगा। लेकिन आप तक यह बात किस अफ़वाह की तरह पहुँची कि चील माने हिंदी के कई आलोचक जो सबसे ज़्यादा सत्ता के शव पर मँडराते हैं। लब्बो-लुआब ये कि मैं चीलों से तो बच जाऊँगा।
    मैं कम-हैसियत।

    सात

    पता नहीं यह क़िस्सा ग़ालिब ने कभी सुनाया भी या कि कभी नहीं सुनाया कि एक आदमी सत्ता का ग़ुलाम हो जाया करता था और उसको इसका नुक़सान यह हुआ कि उसका फ़ायदा कम होता ही नहीं था।

    आठ

    ग़ालिब ने और क्या कहा था या क्या नहीं कहा था ये सोचते न सोचते मैं जा रहा था कि निज़ामुद्दीन की एक इंतिहापसंद गली में ये जूता मिला। किसी ज़ैदी का ये जूता है। अमाँ वही जै़दी जिसने एक जूता बुश पर फेंका था। दूसरा बच गया और यहाँ निज़ामुद्दीन में पड़ा मिला। अब आपने यह कह कर मेरे मन में फाँक डाल दी कि हो सकता है यह जूता जै़न अल आबिदीन का हो जो ख़ुदा ख़ैर करे मोहम्मद साहब के पड़पोते होते थे और जै़द कहलाते थे। लेकिन देख ये रहा हूँ कि ये तिलिस्म गहराता जा रहा है कि किसका ये जूता है क्योंकि जूता तो ये असदउल्ला ग़ालिब का भी हो सकता है जो ग़ौर तो आपने भी किया होगा कि अक्सर एक ही जूता पहने मिलते थे और दूसरा उन्होंने कमज़र्फ़ों की जानिब फेंका होता था और जिनकी क़ब्र जहाँ ये जूता मिला वहाँ से एक फ़र्लांग भी न होगी। लेकिन यह भी तो हो सकता है यह जूता निज़ामुद्दीन नाम के हजरत का हो जो अल्ला ख़ैर करे कम मुतमव्विज तो क़तई न थे। ये भी कहा जाता है कि वो भी अपना एक जूता किसी हाकिम की जानिब फेंके होते थे। और अफ़वाह तो ये तक है कि एक बार तो उन्होंने ये कारनामा अलाउद्दीन खलजी जैसे हुक्मरान के साथ कर दिखाया। अब अगर आख़िरी बात तक पहुँच सकूँ तो वो ये है कि एक जूता लेकर मैं निज़ामुद्दीन से घर लौट रहा हूँ। और इस वक़्त तो दिमाग़ में यही फ़ितूर चल रहा है कि सारे आलिम फ़ाज़िल एक ही पैर में जूता पहनते हैं। दूसरा वो हुक्मरानों की जानिब फेंकते हैं।

    नौ

    जो मेरा हुक्मरान हो वो मेरा कौन हुआ।
    मैं किसी हिज्र की-सी फ़िक्र में हुआ-सा हूँ।

    वो लियाक़त जो मेरे काम बहुत न आई,
    मुझको भी इल्म कहाँ मैं किसी दवा-सा हूँ।

    जो मुझे दोस्त करे और मेरी मुश्किल हो,
    मैं किसी ऐसे फ़लसफ़े पे क्यों फ़िदा-सा हूँ।

    ये तेरा साथ मेरे साथ में क्या-क्या करता,
    मैं तेरे साथ में किस बात पे पहुँचा-सा हूँ।

    मैं निज़ामुद्दीन रहूँ और करूँ ज़िक्रे ख़ैर, 
    मैं भी क्यों होश में बेहोश या हवा-सा हूँ।

    दस

    ये मेरे होश में क्यों इतनी गड़बड़ी-सी है।
    ये मेरे जोश में क्यों इतनी हड़बड़ी-सी है।

    ये किसी से जो कहूँ तो भी कहना बाक़ी, 
    ये मेरी फ़िक्र किस उजाड़ की घड़ी-सी है।

    ये कहीं से जो उठाई तो कहीं रक्खी-सी, 
    ये कोई बात थी जो यूँ ही क्यों पड़ी-सी है। 

    मेरे लिखने पे मेरे यार तेरा क्या लिखना, 
    वो कोई ज़िद है जो हमसे कहीं बड़ी-सी है।

    ये जो बदली नहीं दुनिया तो मैं बदला-बदला, 
    वो मेरी शक्ल किस सियाह में मढ़ी-सी है।

    मेरे होने का हुनर और मेरा ये होना, 
    क्योंकि छोटी हो बहर नज़्म तो बड़ी-सी है। 

    लाल है वो कि ख़ुदाया हुआ दलाल भी है,
    शक्ल हो, अक़्ल हो कि हाल में पढ़ी-सी है। 

    मैं निज़ामुद्दीन हुआ और हुआ और हुआ, 
    वो कोई हद नहीं अनहद की जो कड़ी-सी है।

    ग्यारह

    तू मुझे देखता है क्या कि मैं कुछ बम-सा हूँ।
    तू मुझे देखता है क्यों कि मैं कुछ कम-सा हूँ।

    मैं कहीं हूँ तो कभी हूँ तो कोई भी होकर,
    इतना बहता है पसीना तो मैं कुछ नम-सा हूँ।

    वो जो है इत्मीनान और सुकूँ और तराश मैं हूँ,
    क्यों इतना अचानक कि मैं कुछ धम-सा हूँ। 

    मुझको वो फ़िक्र नहीं क्योंकि मेरा ज़िक्र नहीं, 
    इतना पीकर भी कहूँ क्योंकि मैं कुछ खम-सा हूँ। 

    अब तो ये वक़्त है कि वक़्त कुछ बचा भी नहीं, 
    मैं अकेला ही सोचता हूँ कि मैं कुछ हम-सा हूँ।

    मैं भी देखा किया दरगाह में बैठे-बैठे, 
    मैं किसी कोने में उखड़ा हुआ बे-दम-सा हूँ।

    बारह

    ये मेरी हसरत का वाक़या है तुम्हारी हसरत भी जान लूँ मैं।
    किसी सड़क पर अगर मिलो तो ये सूखी रोटी ही बाँट लूँ मैं।

    ये किस तरफ़ से निकल पड़े हो बहुत ख़ुशी तो कभी नहीं थी, 
    जो देखा ऊपर तो देखा नीचे कि कैसे रहते कि छत नहीं थी।

    अभी किसी से कहूँ तो क्या कि कहाँ से मैंने शुरू किया था, 
    जो हाथ लिखता है वो हाथ मैंने किसी को यूँ ही क्यूँ दे दिया था।

    ये क़िस्सा इतना है जितना जानो ये मेरे हिस्से की रोशनी है, 
    ये मेरी चादर है, तेरी चादर बहुत पसीने में खूँ सनी है।

    तेरह

    वो तुमने किस तरह देखा मैंने तो यूँ देखा।
    तुमने क्या देखा जहाँ मैंने बदायूँ देखा।

    तुम तो न्यूयार्क या इस्तानबुल या पिक्काडिली,
    मैंने इलाहाबाद न देखा तो क्यों हर सू देखा।

    मैं जो दाख़िल हुआ उस माल में बेगाना-सा
    मैंने यक बोझ के नीचे फँसा-सा कूँ देखा।

    तुमने भी देख लिया मेरा अकेला पड़ना, 
    मैंने जो ख़ुद को हटाया तो मैंने हूँ देखा।

    जिस तरह ख़त्म हुआ जश्न तो फिर शक भी हो,
    तुमने जो दाँत दिखाया तो मैंने खू़ँ देखा।

    मैंने जो देख लिया तो जो मेरा हाल हुआ, 
    मैं भी कहता हूँ निज़ामुद्दीन मैंने यूँ देखा।

    मैं भी क्यों हद में नहीं और ये मेरा बेहद, 
    क्यों मैंने इश्क़ न देखा जो मैंने तूँ देखा।

    चौदह

    सबकी तरफ़ से लिखने का अंजाम देख लो।
    ये काम कितना बढ़ गया ये काम देख लो।

    कितना ही कहा कह गए तो कितना कम,
    कहा कहने को हुआ नाम तो ये नाम देख लो।

    बाज़ार में भी बैठ गए और कहा जी, 
    जो लग गए वो दाम ज़रा दाम देख लो।

    सबकी तरफ़ से बोलने का रोज़गार ये, 
    हमको जो देखो देख कर नाकाम देख लो।

    मक़सद है कोई और तो फिर सोचना फ़िजूल, 
    जो सुबह-सी दिख जाए तो ये शाम देख लो।

    अब मार्क्स हो कि माल हो कि कर सको बहस, 
    अब लालगढ़ को देख लो, अवाम देख लो।

    जो गिर गई मस्जिद तो अब आराम बहुत हो, 
    अब रह रहे हैं राम तो बदनाम देख लो।

    पंद्रह

    मुशायरा रात भर चलता रहा। लोगों का ये हाल था कि जैसे मय्यत में होकर लौटे हों। एक ज़बान जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि बीस-पचास साल से ज़्यादा नहीं बचने वाली उसमें इतना कोहराम था कि पूछिए मत। मतलब कि कोहराम ऐसा था कि अगर ज़बान नहीं भी बची रही तो कोहराम बचा रहेगा। ऐसी आम राय थी। मुशायरे के ख़त्म होते न होते पानी बरसने लगा और एक कराह की तरह अल्ला हू अकबर गूँजा जो टूटे दरवाज़ों, फटे कपड़ों, काँपती तस्बीह, सँकरी गलियों के बीच से होता मुँडेरों के ऊपर से मुर्ग़ों के पंखों और एक लड़की के सात दिनों से झूलते दुपट्टे को छूता निकल गया। जिस लड़की के दुपट्टे का ज़िक्र है वह पिछले पाँच दिनों से बुख़ार में पड़ी है और छत पर आ नहीं सकी है और आना भी नहीं चाहती है और दिन भर रोती रहती है और मर जाना चाहती है और फ़िरोज़ाबाद की चूड़ी की फ़ैक्टरी से निकाल दी गई है और ताई के यहाँ से लौट आई है और मामू के यहाँ मुरादाबाद जाना नहीं चाहती और न ही कतर और कुछ बताती नहीं कि क्या। कि क्या कुछ। कि क्या नहीं। मरी यही कहती है कि मर जाने दो। कि भाई उड़ा-उड़ा रहता है। कि पता नहीं क्या चाहता है। कि इस बीच कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है। तीन चार पुलिस वाले शाइरों को ये गाली देते हुए गली से निकले कि क़लाम को ये छोटा नहीं कर सकते थे क्या। जल्दी निपट जाते। एक पुलिस वाला फ़ुटपाथ पर पड़े एक आदमी के पास खड़ा हो गया है और ये जानने की कोशिश कर रहा है कि आदमी सो रहा है या मर रहा है।

    सोलह

    लौटते हुए
    गुज़रते हुए बग़ल से दरगाह के
    मैंने बहुत सारी मनौतियाँ
    माँगीं।
    कि मेरा राजनीतिक एकांत आंदोलन में बदल जाए।
    मेरा दुःख अंबानी की विपत्ति में।
    मुंतज़र अल ज़ैदी को अपना दूसरा जूता मिल जाए।
    बुश के घर की छत उड़ जाए।
    वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का
    वृत्तांत बताते हुए रोने लग जाए
    मेरा बेटा घड़ा बनाना सीख जाए।
    एक कवि का अकेलापन हिंदी की शर्म में बदल जाए।

    मैंने मन्नतें माँगी कि
    नए को ब्राह्मण की रसोई में घुस आए
    कुकुर की तरह दुरदुराया न जाए और
    हिंदी में अलग-थलग पड़ी विपत्ति की
    एक कहानी और एक कविता
    सारे विशेषांकों पर भारी पड़ जाए

    ग़रीबी की रेखा के नीचे रहता हर आदमी
    रेखा के नीचे नीचे नीचे
    चलता चलता चलता
    निज़ामुद्दीन पहुँच जाए जहाँ गाँव को
    गुड़गाँव में न बदला जाए बेशक
    आज़मगढ़ को लालगढ़ में बदल दिया जाए मतलब कि
    शहरों को फिर से बसाया जाए

    और

    और सोचा जाए
    और सोचा जाए
    और सोचा जाए

    और सोचा जाए लेकिन फेनान की तरह
    और रहा जाए लेकिन किसान की तरह
    और गूँजा जाए लेकिन बियाबान की तरह

    अब घर लौटा जाए
    निज़ामुद्दीन के साथ।
    फ़रीद के साथ। नींद के साथ।
    बियाबान में गूँजती हारमोनियम की
    आवाज़ों जैसी नागरिकता की पुकारों के साथ।
    गुहारों के साथ।

    घर लौटा जाए
    और घर छोड़ा जाए
    जिसके लिए मैंने मनौती माँगी है कि
    वह आदिवास में बदल जाए और मेरा बेटा
    संथालों के मेले में खो जाए।

        
    स्रोत :
    • रचनाकार : देवी प्रसाद मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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