बलदेव खटिक

baldev khaTik

लीलाधर जगूड़ी

लीलाधर जगूड़ी

बलदेव खटिक

लीलाधर जगूड़ी

और अधिकलीलाधर जगूड़ी

    रात; चिथड़ा खाती गाय के जबड़े में

    धीरे-धीरे ग़ायब हो रही थी

    यह उसका अंतिम छोर था

    जिस पर एक बटन चमक रहा था

    तभी हमारे गाँव के आकाश में

    अचानक लोगों ने एक दरार देखी

    सड़क से गाँव पर रोशनी फेंकती

    यह पुलिस की गाड़ी थी

    लेकिन यह इतना पैना उजाला नहीं था

    कि अँधेरे के भीतर दुबके अँधेरे में

    कुछ आँखें, कुछ हाथ, कुछ पाँव चमक उठें

    वे भड़भड़ाकर उतरे

    और रँगतू के घर की ओर दौड़े

    उनकी दुरुस्त और निर्विघ्न दौड़ बताती थी

    कि हमारे गाँव की चाल ख़राब हो गई है

    उनकी पोशाक

    हमारे गाँव के कुत्तों तक के लिए

    अपरिचित थी

    जिसने चिथड़े पहने हुए हों

    हमारे गाँव के कुत्ते उसे फाड़ डालेंगे

    वे गाँव की ग़रीब जनता के कुत्ते हैं

    सभ्य और अजनबी पोशाकों के दुश्मन

    लेकिन चार जोड़ी

    पुलिस के बूटों में

    उन्हें बैल के चमड़े की गंध नहीं रही थी

    उनके पुलिसपैर

    एक लाइन में

    जैसे जलओद उछल रहे थे

    क्योंकि ऐसे मौक़े पर

    जो जिसके पास है

    उसका उपयोग ज़रूरी हो जाता है

    इसलिए कुत्ते भौंक रहे थे

    जो रँगतू

    कल राशन लूटने में शरीक था

    उनके पास उसके नाम का वारंट

    उसके परिवार ने रात भरपेट खाया है

    भूख भर अन्न के नशे में

    अपने देश का एक मामूली घर भी

    आरामगाह बना हुआ है

    (वैसे उसे घर कहना भी

    खामोखा जिन्हें घर कहते हैं

    उनकी बढ़िया छतों पर घास उगा देना है)

    क़रीब-क़रीब अपनी इच्छाओं की मुट्ठी खोलकर

    इस समय तक वे सोए हुए हैं

    अपनी लात में ताक़त पैदा करके

    उन्होंने उसे बूट से उठाया

    और तुरंत उसके हाथ बाँध दिए

    (वे हाथ जो बड़ी-बड़ी इमारतों पर

    पलस्तर की तरह चिपके हुए हैं)

    फिर थोड़ा बचे हुए अनाज के साथ

    उसे शहर ले गए

    जहाँ आदमी के लिए

    जेल और पोस्टमार्टम की पूरी व्यवस्था है

    पुलिसवालों पर आदमियों की आँखें थीं

    इसलिए रँगतू की नंगी औरत

    बाहर नहीं सकी

    लेकिन भीतर

    बच्चे उसके शरीर से पहनावे की तरह चिपके हुए थे

    यह सुबह थी

    गाड़ी के इंजन पर थरथराती हुई

    अँधेरे के भीतर दुबके हुए अँधेरे में

    बीवी-बच्चों के लिए लड़ता हुआ रँगतू

    पहली बार गाड़ी पर ‘फ़्री’ चढ़ रहा था

    यह एक ऐसा वक़्त था

    जब वनस्पति

    केवल घी के डिब्बे का मतलब था

    और कहीं भी कोई शब्द अपनी क्रीज़ में नहीं था

    शब्द जो कि दाल और भात हैं

    शब्द जो कि रोटी और साग हैं

    नहीं-नहीं; शब्द इतनी बड़ी चीज़ नहीं हैं

    शब्द केवल रोटी पर रखे हुए नमक के कण हैं

    शब्द जो लार बनाते हैं

    इस वक़्त कहाँ से लाए जाएँ ऐसे शब्द

    जो हलफ़नामा बन सकें

    जो तरफ़दारी कर सकें

    पुलिस की गाड़ी में उसकी शब्दहीन आत्मा

    एक नंगे पेड़ की तरह है

    जिस पर थाने पहुँचने से पहले

    कई हज़ार घमौरियाँ फूट पड़ेंगी

    कई हज़ार लाल घमौरियों में बंद पत्ते

    निशान की तरह बाहर उभर आएँगे

    भाषा अचानक सारे शरीर में फल पड़ेगी

    और कई हज़ार जीभों से बोलता हुआ

    वह बरी हो जाएगा

    अपनी जड़ों के सहारे

    अपनी मिट्टी में उतरा हुआ रँगतू

    पेड़ है। पत्ता है। हवा है

    अँधेरे के भीतर दुबका हुआ अँधेरे का कीड़ा भी नहीं

    शब्द भी नहीं

    रँगतू एक अकेले आदमी का दर्द है

    और अकेला आदमी अपराधी होता है

    सवालों के जत्थों से भरा हुआ अकेला आदमी

    एक दुर्घटना होता है

    थाने पहुँचते ही

    गाड़ी से उतरते हुए रँगतू ने

    ड्राइवर ने गाड़ी का डाला खोला

    और वह सिपाहियों की ही तरह कूदता हुआ

    ज़मीन पर खड़ा हो गया

    तभी एक सिपाही को (जो रास्ते भर बीड़ी पीता रहा)

    घर से आया हुआ तार दिया गया

    तार पर उसकी माँ बीमार थीं

    लेकिन उसे शाम तक छुट्टी नहीं मिली

    पक्का ‘जेल आडर’ बनवाने तक

    वह रँगतू को, रस्सा पकड़े हुए

    एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाता रहा

    तीन गिलास चाय

    और बावन पैसे की बीड़ी के धोरे पहुँचने के बाद

    जिस समय झंडा उतरने का गजर बज रहा था

    उस समय रँगतू को कंबल, कोठरी ओर नंबर मिल रहा था

    (लेकिन सिपाही की माँ

    जेब में मुड़े हुए तार पर छटपटा रही थी)

    जब तीसरे दिन छुट्टी पर

    वह अपने गाँव पहुँचा तो उसकी माँ

    सुई की नोक पर

    अभी झड़ पड़ने वाली

    पानी की बूँद की तरह इंतज़ार कर रही थी

    वह भागा-भागा ज़िला अस्पताल गया

    एंबुलेंस माँगी

    भाँग के पौधों के बीच जो ख़राब खड़ी थी

    धतूरा जिसके इंजन से बड़ा हो गया था

    कई पुरानी लाशों को लाँघते हुए

    उसने चारों ओर अपना दिमाग़ दौड़ाया

    और जब बड़ी मुश्किल से एक विचार

    उसकी पकड़ में आया

    तो वह लपककर पास ही थाने में गया

    क्योंकि आजकल केवल आदमी होना

    न्यायसंगत नहीं है

    इसलिए उसने बताया कि मैं भी पुलिस विभाग का

    आदमी हूँ

    माँ को अस्पताल लाने के लिए

    थोड़ा पुलिसगाड़ी दे दीजिए

    उन्होंने कहा

    पुलिस की गाड़ी अपराधियों को पकड़ने के लिए है

    घर पर मरो या अस्पताल में मरो

    सड़क पर मरो या श्मशानघाट पर पहुँचकर मरो

    मरना कहीं भी अपराध नहीं है

    और फिर तुम्हारी माँ का

    हमारे पास कोई वारंट नहीं जो हम गाड़ी भेज दें

    आख़िर मरने वाले को कौन पकड़ सकता है

    अक्सर हमारे पकड़े हुए भी मर जाते हैं

    जब शाम को एक दवा की शीशी और कुछ गोलियाँ लेकर

    वह घर आया

    तो उसने अपनी माँ को मरा हुआ पाया

    संसार से यह फ़रारी किस अपराध से बचाती है?

    अभावों की इस आज़ाद कहानी में

    क्या इसी तरह होती है मुक्ति?

    आख़िर बढ़ाई हुई छुट्टियों में

    जब उसने अपनी माँ को स्वर्ग पहुँचा दिया

    तब वह फिर थाना बिजनौर में लौट आया

    वह विरक्त होना चाहता था

    लेकिन अपना भविष्य उसे

    भीतर-ही-भीतर ठग रहा था

    कर्मकांड की सारी कमज़ोरी को ढँकता हुआ

    उसका उस्तरा फिरा सिर

    किसी फ़िल्मी ग़ुंडे का सिर लग रहा था

    फ़िल्मवालों को जब ग़ुंडे और हत्यारे

    दिखाने होते हैं

    तो वे अभिनेता पर आम आदमी का मेकप कर देते हैं

    बात दूसरी ओर चली जाएगी

    क्योंकि इस बात को कान और ज़ुबान की तलाश है

    इसलिए मैं आपको

    फिर से थाना बिजनौर ले चलता हूँ

    जहाँ अपना घुटा हुआ सिर लेकर

    वह सिपाही इस समय संतरी-ड्यूटी पर है

    उसकी छाती पर गोलियों का पट्टा है

    उसके हाथ में एक बंदूक़ है

    उसे नहीं मालूम वह किसकी रक्षा कर रहा है

    (मेरी समझ से वह केवल टहल रहा है)

    क्या वह संसार की अपराध से रक्षा कर रहा है?

    क्या वह इस देश को बिगड़ने से बचा रहा है?

    भीतर एक कमरे में

    अपने गंदे लेकिन वरिष्ठ दाँतों को लेकर

    दीवान बैठा है

    रोज़नामचे पर हाथ रखे हुए

    जैसे वह शहर की पीठ हो

    एक मार खाया हुआ आदमी चिंचियाता है

    मेरा बटुआ छिन गया

    उसमें मेरी लड़की का फ़ोटो भी था

    वे उससे बलात्कार करेंगे

    वे उसे मार डालेंगे

    देखिए, मुझे कितनी चोटें आई हैं

    मेरा दर्द—दर्ज करो

    इस मटीले काग़ज़ पर मेरा दर्द—करो

    अपने होंठों पर मुर्दा दिन को ज़िंदा करते हुए

    दीवान कहता है

    किस क़लम से करूँ?

    चाँदी की क़लम से करूँ? सोने की क़लम से करूँ

    कि लकड़ी की क़लम से करूँ?

    मार खाया हुआ आदमी रिरियाता है

    कि क़ानून की क़लम से करो

    क़ानून की क़लम लकड़ी की होती है

    दीवान कहता है—कल आना

    मगर अपना गवाह भी साथ लाना

    और किसी डॉक्टर से यह भी लिखवा लाना

    कि तुमने मार खाई ही खाई है...

    बाहर संतरी-ड्यूटी पर खड़ा बलदेव खटिक

    जिसका सिर मुँडा हुआ है

    जिसकी माँ बिना दवाई के मर गई थी

    सब सुन रहा है

    (थाने की बड़ी घड़ी सुधारकर

    घड़ीसाज़ फाटक से बाहर जा रहा है)

    अचानक सामने खड़े नीम के पेड़ पर

    उतरते शाम के कौवों से बलदेव खटिक कहता है

    —‘थ्थम’

    मगर वे नहीं रुकते

    वह धड़ाधड़ फ़ायर करता है

    बंदूक़ के बट को थाने की दीवार से मारकर

    तोड़ देता है

    और सीढ़ियाँ उतरकर

    सड़क पर मरे हुए कौवों को लाँघकर

    फ़रार हो जाता है

    (थाने की बग़ल में उस समय सिनेमाघर के भीतर

    पर्दे पर एक एक्टर प्यार कर रहा था)

    अब तक वह संतरी था

    अब वह बलदेव खटिक है

    ‘माँ की चूत इस नौकरी की’ कहकर वह

    माँ, माँ, माँ चिल्लाता हुआ

    सीधा हमारे गाँव में घुस आया

    उसके सिर पर टोपी नहीं है

    क़मीज़ हाफ़पैंट से बाहर गई है

    वह हरेक औरत से पूछता है तुमको क्या बीमारी है?

    अस्पताल तक पैदल चलो। गाड़ी ख़राब है

    बच्चों से कहता है लाओ मेरी लकड़ी का क़लम

    मैं फैसला लिख दूँ

    किसी की बीमारी सुने बग़ैर

    किसी के पास एक क्षण रुके बग़ैर

    किसी को कोई फ़ैसला दिए बग़ैर

    वह दौड़ता हुआ आया

    और रँगतू की झोपड़ी में

    बेहोश होकर गिर पड़ा

    (झोंपड़ी का दरवाज़ा खुला हुआ था

    रँगतू राशनवाले मामले में जेल चला गया था

    और उसकी औरत भी बच्चों समेत

    वहाँ नहीं थी

    मगर किसी ने भी उन्हें कहीं जाते नहीं देखा था

    भीतर से नींद में पूँछ झुकाए हुए

    एक कुत्ता निकला और अगली गली में मुड़ गया)

    सुबह होने वाली है

    लेकिन रात अब भी मौजूद है

    रात उस वक़्त भी मौजूद रहेगी

    जब लोग दुपहर को ढलते हुए देख रहे होंगे

    हर घर को अपने दर्द में लपेटती

    दरवाज़े की संधों को थोड़ा और चौड़ा करती हुई

    रात ब्याने वाली है

    चिड़ियों और कौवों और कुत्तों के सामूहिक शोर में

    पत्तियाँ थरथराने वाली हैं...

    तभी हमारे गाँव के आकाश में

    अचानक लोगों ने एक दरार देखी

    सड़क से रोशनी फेंकती हुई

    फिर यह पुलिस की गाड़ी थी

    राख की तरह झरती सुबह में

    चमकती हुई कुत्तो की भौंक के बीच

    बीड़ी पीते हुए वे उतरे

    संबंधों की वीरानगी में

    उनके साधारण चेहरों पर

    घरेलू थपेड़ों की गहरी शिनाख़्त है

    टट्टी फिरते हुए बच्चे हैं। फोड़े हैं

    चूल्हे पर चढ़ा हुआ खदबदाता पानी है

    भात के भपारे हैं

    वे उतरे और रँगतू की झोंपड़ी से

    उस पागल सिपाही को बाँधकर ले गए

    पहले उन्होंने उसके सरकारी कपड़े उतारे

    क्योंकि सरकार पागल नहीं होती

    सरकार अपराधी नहीं होती

    यह अलग बात है कि हथकड़ी और सज़ा

    इन दोनों में से

    आम आदमी के लिए सरकार क्या होती है?

    उन्होंने भी उसे हथकड़ी पहना दी

    ओर आम आदमी में तब्दील कर दिया

    वह अपने ही गाल पर चाँटे मार रहा है

    उसके पास कोई सहमति है और कोई इंकार

    धरती को पीटते हुए

    वह अपने ही पैर तोड़ रहा है

    फिर उसके पागल सिर पर

    बाल

    आधा इंच बड़े हो गए हैं

    उसके लंबे नाख़ून संसार की धूल से

    गंदे हो रहे हैं

    उसके हाथों में अब भी एक आदमी की ताक़त

    मौजूद है

    लेकिन उसे अपने दुश्मन की सही पहचान नहीं है

    और उसने गोलियाँ सही जगह नहीं दाग़ी हैं

    अब वह एक कोठरी में बंद है

    और उससे बयालीस नंबर जूनियर

    बाहर एक संतरी है

    एक खंभे से दूसरे खंभे तक टहलता हुआ

    चेहरे से ज़्यादा जिसके बूट में चमक है

    अपनी मुस्तैदी में

    जिसका समूचा शरीर

    अनुशासन की रग है

    उसकी छाती पर भी

    गोलियों का एक पट्टा है

    सिर पर टोपी है और हाथ में बंदूक़ है

    मगर यह पहले वाले सिपाही से कहाँ पर अलग है?

    यह भी अपने देश को

    कहीं पर पाता है

    कहीं पर खोता है

    उससे कहा गया है कि हरेक पर शक करो

    विश्वास केवल दीवान का करो—दरोग़ा का करो

    (उसका निजी कोई विश्वास नहीं)

    अब देखना यह है कि

    ये कब पागल होता है!

    एक अच्छा-ख़ासा

    काम करता हुआ आदमी

    पागल हो जाए

    1974 की राजनीति में

    इसके लिए कोई शब्द नहीं

    मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ

    बलदेव खटिक के ख़ानदान में

    कोई पागल नहीं था

    आप लोग अपनी परवाह करें

    अपने बच्चों की जाँच करवाएँ

    यह केवल अफ़वाह नहीं

    (बल्कि ज़िंदा होने की नई शर्त है)

    कि देश में कुछ लोग

    पेट से ही पागल होकर रहे हैं

    लेकिन वे जब फ़ायर करेंगे

    तो यह तय है कि

    इस बार कौवे नहीं मरेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बची हुई पृथ्वी (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : लीलाधर जगूड़ी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1977

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