स्त्री-सुबोधिनी

istri subodhini

पवन करण

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स्त्री-सुबोधिनी

पवन करण

और अधिकपवन करण

    हमें अपने इकलौते लड़के के लिए एक ऐसी बहू चाहिए

    जो दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो और उसे ये बात

    कि वह दुनिया की सबसे अच्छी बहू है पता हो

    जिसे बोलना भले ही आता हो मगर हो वह गूँगी

    ‘न’ इस शब्द को वह पहचानती ही हो

    और ‘हाँ’ उसकी ज़ुबान पर दरवाज़े के बाहर

    हाथ बाँधे खड़े नौकर की तरह रहता हो खड़ा

    जिसके दोनों पैर तो साबुत हों मगर हो वह लँगड़ी

    वह चलना जानती हो दौड़ना

    नाचना तो उसे बिल्कुल आता हो

    और ग़ुस्से में पैर पटकते तो उसने किसी को देखा ही हो

    जिसके कान भले ही हों मगर उसे सिर्फ़

    हमारे घर के लोगों की आवाज़ के

    बाहर की कोई आवाज़ सुनाई दे

    आँखें होने पर उनसे दूर तक देखने लायक़ होने के बाद भी

    उसकी घर से बाहर देखने की इच्छा ही हो

    जिसके पास डिग्रियाँ तो ख़ूब हों

    लेकिन वह पढ़ी-लिखी हो ज़रा भी

    दस्तख़त करने के नाम पर वह आगे कर देती हो

    अपने हाथ का स्याही लगा अँगूठा

    और अपनी डिग्रियों को महज़ काग़ज़ के टुकड़े मानकर

    छोड़ आए पिता के घर अपने

    ऐसी कि सब उसे देखते रह जाएँ और हमसे बार-बार कहें

    अपने लड़के के लिए क्या बहू ढूँढ़कर लाए हैं आप

    लेकिन वह तो अपनी ख़ूबसूरती बार-बार

    आईने में देखती हो और ही ख़ुद को हमारे घर की

    साधारण से चेहरेवाली लड़कियों से अधिक सुंदर मानकर चले

    जिसके पिता के घर के लोग

    हमारे घर को समय से बढ़कर

    और सच से अधिक मानकर चलें

    और यह बात बार-बार कहते रहें

    आपके घर में अपनी लड़की देकर धन्य हो गए हम

    हम तो इस लायक़ थे भी नहीं

    जिसे रोना बिल्कुल आता हो

    चीख़ना तो वह जानती ही हो

    और उसकी पीठ ऐसी हो कि उस पर उभरते ही हों नीले निशान

    उसके गालों पर छपती ही हों उँगलियाँ

    और वह पिटते समय बिलखती नहीं, हँसती हो

    चेहरे से जिसके पीड़ा झलके नहीं

    दु:ख दिखाई दे जिसकी आँखों में

    बातों में जिसकी कष्ट बजें नहीं

    जिसे हमें ढूँढ़ने कहीं जाना पड़े उसका पिता

    नाक रगड़ता निहोरे करता हमारे घर आए

    और हम उस पर करते हुए एहसान

    बहू के रूप में उसकी बेटी को अपने बेटे के लिए रख लें

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 95)
    • रचनाकार : पवन करण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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