साल

sal

प्रियदर्शन

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    जनवरी नए उगते फूलों की ख़ुशबू जैसी लगती है

    जब हम पहली बार बाग़ में दाख़िल हो रहे हों

    सोचते हुए, अभी तो शुरू हुआ है साल

    और इस बार तो सहेज लेंगे वह सब जो इतने सालों से बिखरा पड़ा है

    फिर फ़रवरी आकर कुछ फूल गिरा जाती है पाँवों पर

    और सरग़ोशियों में याद दिला जाती है

    कि कुहरे-कुहरे में कुछ वक़्त फिसल गया है

    फिर भी अफ़सोस नहीं है ताज़गी में कमी है कोई

    आख़िर कम नहीं होते ग्यारह महीने

    और सहेजना शुरू करने में लगता तो है थोड़ा वक़्त

    मार्च थोड़ी तपिश और थोड़ा पसीना छोड़ जाता है

    कुछ फ़िक्र भी कि अब तक ज़िंदगी पटरी पर नहीं आई है

    फिर भी एक तसल्ली है कि मौसम से ऊष्मा है

    और थोड़े से धीरज, थोड़ी समझदारी से तानी जा सकती हैं

    वक़्त की प्रत्यंचाएँ अपने अनुकूल।

    अप्रैल के साथ आता है शुष्क-सा यथार्थ

    कि फिर वही फिर वही मौसम जिसमें वक़्त की धूप

    कोमल इरादों की पत्तियों को झुलसाना शुरू करती है

    हम कमरे में हैं मेज़ पर और क़लम खुली पड़ी है

    काग़ज़ उड़ रहा है और शब्द पकड़ में नहीं रहे

    थोड़ी-सी बोरियत कुछ थकान और चाय पीने की इच्छा

    जो हमें खींच लाती है कमरे से बाहर।

    और अब हम मई के सामने हैं, बाहर धूल है भीतर क्लांति

    बीच में सिर पर पड़ती हुई धूप

    हम क्या करें कहाँ जाएँ

    ये वो मौसम है जो कमरे से बाहर जाने की इजाज़त नहीं देता

    ये ख़ुद को याद दिलाने का वक़्त है

    कि साल अपने आधे सफ़र के अंतिम पड़ाव पर है

    और उम्मीदों और इरादों के इम्तिहान लगातार होते जाएँगे मुश्किल

    लेकिन फिर वही सवाल कहाँ जाए, क्या करे कोई

    जून थोड़ी-सी उमस और चिपचिपाहट के साथ आता है

    आधे के बचे होने का एहसास बाँधे हुए है अब भी

    और मेज़ से धूल साफ़ की जा रही है

    उजले काग़ज़ रखे जा रहे हैं

    किताबें क़रीने से सजाई जा रही हैं

    और एक ख़ुशनुमा-सा एहसास

    देर से ही सही, शुरुआत तो हुई

    कि सामने खड़ी होती है जुलाई

    बारिश में भीगी अपनी गीली चोटी लटकाए

    कमरे में बूँदें रही हैं और काग़ज़ कोरा का कोरा है

    क़लम पड़ी है एक किनारे और मन स्थिर नहीं है

    कुछ दोस्तों की मीठी याद, कुछ दुश्मनों से तुर्श ईर्ष्या

    जिन्हें मौसम का कोई दख़ल रोकता नहीं।

    अगस्त से शुरू हो जाती है ढलान

    और कुछ थकान भी

    जिसमें पहली बार शामिल है यह उदास करने वाला ख़याल

    कि यह साल भी जेब और ज़िंदगी से यों ही निकल जाए

    सितंबर थोड़ा सहारा देता है तसल्ली भी

    कि बाक़ी है लिखने की इच्छा

    इसके बावजूद कि बहुत सारी अड़चनें हैं उलझनें भी

    और उससे ज़्यादा अनमनापन कि कोई चीज़ इन दिनों छूती नहीं

    छूती है तो टिकती नहीं

    अक्टूबर तुरही बजाता हुआ आता है

    याद दिलाता हुआ कि सारे उत्सव मना लो इन्हीं दिनों

    यह अपने किए को सहेजने का वक़्त है

    लेकिन अनकिए को कोई कैसे सहेजे, यह नहीं बताता

    नवंबर से शुरू हो जाता है विदागीत

    हल्की-हल्की सर्दियाँ और पहाड़ों-आसमानों से उतरता

    कोमल धूप में लिपटा चिड़ियों का संगीत

    यह हिसाब-किताब करने का वक़्त है

    खोया-पाया की बही खोलने का

    और देखने का

    कि इरादों की कोमल पत्तियाँ वक़्त की पुस्तक में दबे-दबे सूख गई हैं

    हालाँकि उनके निशानों में भी है रचना की गुंजाइश

    और दिसंबर तो बस आता है नए साल का दरवाज़ा खोलने के लिए

    बची-खुची छुट्टियाँ लेने का वक़्त और ख़ुद से किए वायदों को भूल

    नए वायदे करने का

    पहली बार महसूस होता है कि अरे, निकल गया यह साल तो

    लेकिन साथ में उतरता है यह बोझ भी

    कि चलो भले बीता कोरा का कोरा

    लेकिन इसके बाद तो रहा है नया साल

    जिसमें हम बाँध सकेंगे नए सिरे से मुट्ठियाँ

    और ख़ुद को दे सकेंगे तसल्ली

    कि बाक़ी हैं अब भी कई बरस हमारे लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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