नेहरू जी के प्रति

nehru ji ke prati

हरिनारायण व्यास

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    क्षुब्ध वसुधा।

    लू बवंडर

    पीत पर्णों के विकट तूफ़ान छाए हैं।

    गगन से वसुंधरा तक।

    घूमती सूखी, दुखी, भूखी, भयानक आँधियाँ

    उजड़े हुए उद्यान, सुखमय झोंपड़े,

    कुटिया महल के शीश पर।

    फट गई छाती, दरारें पड़ गई हैं

    उर्वरा शस्या धरा के वक्ष पर

    कंटकों की भीड़,

    लंबे चीड़ तक के नीड़ सब ख़ाली पड़े हैं।

    गिर गए पक्षी सुनहली पाँख वाले

    आज असमय की भयानक ऊष्ण भाँपों ने

    झुलस उन का दिया तन

    भुन गया जीवन सदा को।

    आज केवल एक तू ही छा रहा सूखे गगन में

    श्याम घन।

    कोटि मानव की दु:खी आँखें लगी तुझ पर

    उतर बेखौफ़ नीचे

    निज हृदय की स्नेह-गरिमा बिंदु को बरसा यहाँ

    कर रहा जो भार तन-मन पर वहन।

    दृढ़ लगन से तू रहा उसको सँभाल।

    अव बनना मोम का पर्वत

    दबना भार से।

    क्योंकि तेरी छाँह में

    मासूम औ' सुकुमार बच्चे

    स्नेह-ममता-मूर्ति माँ-बहनें वतन कीं

    ले रही हैं निज पनाह

    है जिन्हें विश्वास का उल्लास जीवन-शक्तिदाता

    देख तेरे देश के सिर पर खड़ा ऊँचा हिमालय

    जो अभी तक है अजेय।

    प्रति निमिष नित हिम प्रभंजन

    क्रुद्ध साँपों से विकट फूत्कार करते

    तिलमिलाते क्रोध से

    पथ में मिला सब कुछ चबाते

    भीति छाते।

    किंतु उसने की कभी परवाह उनकी?

    वह सभी का क्रोध।

    तम-सा कंदरा में मूँद कर निश्चिंत सोता।

    तू स्वयं निज देश की शुभ भावना का है

    हिमालय।

    आज तेरा देश तेरे हाथ की तलवार है

    तू उसे जग-शांति हित कर में उठा।

    आज तेरे देश की मज़लूम जनता की

    सबल हुंकार नभ से सात पर्दो पार तक

    टंकार लेगी।

    हे मनुज के त्राण तेरा स्वागतम्

    स्वागतम् शत स्वागतम्!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दूसरा सप्तक (पृष्ठ 68)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : हरिनारायण व्यास
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2012

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