संस्मरणारंभ

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नीलाभ

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    तुम कहीं नहीं भाग सकते, उन्होंने निर्णय दिया था।

    तुम कहीं नहीं भाग सकते। वह हर स्थान, हर स्थिति,

    हर समय तुम्हारा पीछा करता रहेगा।

    वह, जो तुम्हें हमेशा दिखाता रहेगा तुम्हारी आत्मा

    के अंदर बहते हुए वही चिर परिचित और निरंतर

    अग्नि-स्राव।

    तुम कहीं नहीं छुप सकते, उन्होंने कहा था।

    और इस तरह उसी क्षण से तुम्हारी रुग्ण और संतप्त आत्मा

    का यह संस्मरण आरंभ हुआ।

    ***

    वह खिड़कियों की दरारों से तुम पर नज़र रखता

    हुआ खंडहरों की भुरभुरी दीवारों में विलीन

    नहीं हो जाता रहेगा।

    वह, जो बार-बार तुम्हें अपनी छद्म-पवित्रता से प्रभावित

    कर अपने ही सम्मोहन में बंदी हो जाने पर

    विवश कर दिया करेगा।

    वह तुम्हें रात की निस्तब्धता में उन हत्यारों

    से बच कर भागने में मदद देता हुआ स्वयं ही

    हत्यारा बन जाया करेगा।

    उसके चेहरे के उन्हीं कामुक और पवित्र भावों

    के पीछे से लपलपाते रहेंगे वही घातक और परिचित

    खड्ग। या तुम्हारे प्रभाव में आकर दबाई गई इच्छाएँ।

    वह शीशे के नगर बनाता हुआ सदियों तक तुम्हारे

    आने की प्रतीक्षा में चुप नहीं बैठा रहेगा।

    वह, जिसके मस्तिष्क में निरंतर चलता रहेगा

    वह असंतुलित और नियंत्रित किया जा सकने

    वाला नाटक।

    तुम कहीं नहीं छुप सकते, उन्होंने कहा था।

    और वे पूर्ववत अपने शुभ्र और पवित्र माथों पर

    आकाश को किसी अर्द्ध-विस्मृत स्वप्न की तरह लपेट कर

    चलते चले गए थे।

    तुम छुप नहीं सकते।

    वह तुम्हारे लिए एक निरंतर और अंतहीन

    दुःस्वप्न बन जाएगा।

    ***

    उसके लिए कुछ भी सीमित नहीं होगा।

    या फिर असहज। उसके लिए कुछ भी अलंघ्य

    नहीं होगा।

    वह जो आकाश के विभिन्न और मोहक रंग

    बन कर तुम्हारी आँखों के माध्यम से तुम्हारी

    आत्मा में प्रवेश कर जाया करेगा।

    वह जो तुम्हारे चेहरे की आभा से प्रस्फुटित

    होता रहेगा। आग की लपटों में। या फिर

    बर्फ़ के अनजान और अकेले अंधड़ों में।

    वह अपनी गली हुई उँगलियों से रेत पर

    आदिम गणनाएँ नहीं करता रहेगा। लहरों

    का इंतज़ार करते हुए।

    उसके लिए कोई भी समय नहीं होगा।

    अपना प्रतिशोध लेने के लिए वह कभी

    जनाक्रांत नगरों में आतुर नहीं होगा। या

    फिर अव्यवस्थित।

    उसके लिए कुछ भी अकरणीय नहीं होगा।

    तुमने उन घावों को छू कर देखने की कोशिश की

    थी, जो तुम जानते थे, तुम्हारी कल्पना ने तुम्हारी

    आत्मा पर बना दिए थे।

    लेकिन तब भी तुम्हें विश्वास नहीं आया था कि तुम

    उनके हाथ जुए में हार चुके हो अपने सभी नक्षत्र।

    सभी घटनाएँ।

    उनके शब्द तुम्हारे दिमाग़ में बन गए थे आकाश।

    उनके दंश का ज़हर तुम्हारे रक्त के साथ-साथ

    तुम्हारी नसों में दौड़ने लगा था।

    और तुम्हें लगा था कि समय पाकर तुम्हारे

    कमज़ोर स्थलों से फूट-फूट आता रहेगा—यह

    अनिवार्य विष।

    तुम्हारे पास अपने अतीत के सिवा कुछ भी नहीं

    बचा था। क्योंकि अपने सपनों को बेच कर ख़रीदे

    गए मकान में, तुम्हें महसूस हो रहा था कि

    तुम रह नहीं पा रहे।

    और तुम अपने दिमाग़ के इस जेलख़ाने में

    चले आए थे। सुखी और नि:संग।

    तुम्हें लगा था कि अब कुछ भी करना कितना

    सहज हो गया था। कितना सहज हो गया था

    दूसरों की हत्या करना। या फिर ख़ुदकुशी।

    तुम्हारे चेहरे पर उभर आया था एक उत्तप्त

    और हरिताभ सागर, जिसके तटों पर

    जलता हुआ लावा सरक कर लहरों में

    समा गया था।

    ***

    तुमने सोचा था

    वह नहीं आएगा जो प्रेक्षागृहों में करता

    होगा हत्याएँ।

    वह चेहरा कभी नहीं आएगा।

    वह, जो स्मृतियों को कुचलता हुआ तुम्हारे

    लिखे पत्रों को हवा में हिलाता अदालतों

    की ओर निकल जाएगा।

    वह अपने साथ तुम्हारे संबंधों को सिद्ध

    करने के लिए प्रस्तुत करेगा तुम्हारे ही हस्तलिखित

    दस्तावेज़। या जीवित प्रमाण-पत्र।

    वह जो आग पर चलता हुआ किसी को नहीं

    दिखाएगा अपने शरीर पर ठुकी कीलों के चिह्न।

    वह रहा ही नहीं होगा। वह।

    जो आएगा ढूँढ़ता हुआ अपने ही ज़ख़्मों से

    गिरे ख़ून के निशान।

    ***

    वे तुम्हें दे गए थे दूसरों की व्यर्थ और मरी

    हुई आँखें। वे दे गए थे दूसरों के कटे हुए

    हाथ। या फिर भावहीन चेहरे।

    वे चिर-यायावर यात्री, जी तुम्हें अपने मोहक और चाह-भरे

    तन दिखा कर, रात के अँधेरे में ही शहर की

    परिक्रमा को निकल गए थे।

    तुम कहीं नहीं छुप सकते, वे कह गए थे। वह निरंतर

    तुम्हारा पीछा करता रहेगा। वह जिसकी मंत्र-बद्ध मूर्तियों

    को खोजने के लिए तुम बार-बार जाओगे उन आदिम मंदिरों

    में। अपने समूह के साथ।

    तुम्हें लगा था कि अब ऐसा कुछ भी नहीं

    होगा जो असंभव प्रतीत होगा। या फिर संभव।

    जीवन के अर्थहीन और विसंगत नाटकों के प्रति अब

    रुचि अधिक देर मस्तिष्क को नहीं देती रहेगी छलावे।

    ***

    तुमने कहा था, देख लेना। वे आएँगे। वापस।

    उनके हाथों में धुआँ उगलते लोबान के खप्पर

    होंगे। या फिर कुआँरियों के रक्त-सने

    क्षत-विक्षत शव।

    कहीं कुछ नहीं बदलता है, तुमने सोचा था।

    वही-वही दुहराई गई अनुश्रुतियाँ उन्हीं

    खंडहरों में लोगों को घेर लिया करेंगी जिनमें

    वह शापित और एकांतवासी

    गति को दे दिया करेगा नए-नए आयाम।

    नई-नई दृश्यावलियाँ।

    वह जो पूर्ण निरपेक्षता से तुम्हारी उर्वरता में

    रोपता रहेगा निरंतर अपने छल-छंदों के बीज।

    ***

    तुम देखते रहे थे अपने अंदर से गुज़रता हुआ

    वह अप्रतिबंधनीय अग्नि-प्रपात।

    या फिर असंख्य और जलती हुई तेज़ उल्काएँ।

    और वहीं यह एकांत तुम्हें तोड़ गया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल जमा-1 (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : नीलाभ
    • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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