पहले तुम्हारा खिलना

pahle tumhara khilna

विजेंद्र

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पहले तुम्हारा खिलना

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और अधिकविजेंद्र

    सफ़ेद फूलों वाला पौधा

    मैं देख रहा हूँ—

    उसके गहरे चॉकलेटी पत्ते...

    जिनमें उभरी हैं भूरी-भूरी नसें—

    देख रहा हूँ

    ढलते सूर्य में।

    मैं इसका सही नाम नहीं जानता

    यह अब वर्षा से धुल कर

    निखरी धूप में चमक रहा है—

    तनिक-तनिक आकाश में

    हिल रहा है।

    मैं अपने अंदर

    क्यों—

    घना ख़ालीपन झेल रहा हूँ

    जबकि यह पौधा समूल

    मेरे चित्त में उतर कर

    भीतर भी

    हिल रहा है।

    आँखों ने इसे देखा

    नसपुटों ने धरती की गंध महसूस की।

    पहले अगर मैंने इसे देखा होता

    तो शायद यह अपने उजास को खोलता—

    इतना नहाया हुआ दिखता

    इसके फूलों का उजलापन

    बूँदों में टपकता।

    मैं इसका नाम नहीं जानता

    प्रजाति का ज्ञान है मुझे—

    फिर भी... इसको जहाँ देखा

    कुछ अलग लगा

    कुछ निरा अपना लगा

    इसने कभी अपनी भौंएँ टेढ़ी नहीं कीं...

    एक ही पौधा—

    और चित्त में झलकती इतनी छबियाँ

    इतने राग

    इतने रिश्ते

    इतने पियरमन तंतुओं की नरम-नरम नोकें।

    पहले तुम्हारा खिलना ही सच है—

    उगना जीवन है

    फूल आगे की काम्य इच्छाएँ।

    अगर मैं इसे अपना साथी भी बनाऊँ

    तो भी

    यह मेरे लिए

    अगली ऋतु में खिलेगा...

    खिलेगा—

    नाचते मोर की तरह।

    मैं इसका सही नाम नहीं जानता

    बहुत सारे पौधों के नाम

    मुझे याद नहीं।

    मुझे अपने पुस्तक ज्ञान का बड़ा गुमान है

    तो भी

    चॉकलेटी चमकदार पत्तोवाला पौधा कह कर

    काम चलाता हूँ।

    जब पूछते-पूछते थक गया

    नाम किसी ने नहीं बताया

    तो मैंने इसे कहा ‘सलौना’

    पहले बच्चों ने इसे सलौना कह कर बुलाया

    बाद में सब सलौना कहने लगे।

    कई लोगों ने कहा

    क्यों उसके पीछे पड़े हो

    फूलों में ख़ुशबू है

    सुहाना इसका रूप

    उस समय मैंने सुनी चित्त की धड़कनें...

    कोई फूल ऐसा नहीं

    जिसमें गंध हो

    धरती से अंकुरित होने वाला हर कल्ला

    गंधवान होता है

    भले ही मेरे नसपुट उसे पकड़ पाएँ

    हर पौधा धरती का शिशु है

    वनस्पतियाँ उसकी संतानें

    जैसे मुझमें कहीं कहीं

    मेरे पुरखों के गुण सूत्र जीवित हैं

    जैसे कि पेड़ों की खुरदरी छाल का रिश्ता

    उन गहरी जड़ों से है

    जो पौंड़ी हैं धरती में

    दूर-दूर।

    भले ही देखने में भिन्न लगूँ

    पर चेहरे पर रहेगा बना

    देसी भदेसपन

    एकदम!

    धरती उद्भिज्ज को

    पहले अपने गर्भ में रखती है

    अंकुरित होने पर

    वही उसका प्रतिरूप है।

    जब वह द्विपत्र बना एकांत में

    उसे किसी ने देखा नहीं

    पर वह बिना पानी

    बिना धूप उगा है आज तक

    अँधेरे में...

    जब वह बड़ा होकर खिला है आकाश में

    मैं चकित हूँ।

    ऋतुएँ आईं, गईं

    किसी ने उससे उगने को कहा नहीं

    मुझे हर पतझर में

    एक बेजान शून्य भरता दिखाई दिया।

    कैसा प्रस्फुटित... महकता क्षण है

    चैत में नीम की मंजरी-सा

    जिसके उगान के बारे में सोचता हूँ

    फिर कभी

    बिल्कुल भिन्न और अलग सोचूँगा

    और मेरे आगे आने वाले लोग

    इसके बारे में सोचने को मुक्त होंगे।

    पौधे का जीवन

    मुझे एक तरह नहीं सोचने देता।

    पहले उद्भिज्ज का धरती से फूटना

    फिर उसके बारे में

    भावत्वरित सोचना।

    अगर यह उजासित नहीं खिलता

    तो शून्य भरता कैसे

    मैं सोचता कैसे

    जैसे पहले-पहल तुम्हारा होना

    बाद में तुमसे भिन्न होकर

    एक होकर खिलना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पहले तुम्हारा खिलना (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : विजेंद्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2004

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