नदी में अनेक भय

nadi mein anek bhay

सीताकांत महापात्र

सीताकांत महापात्र

नदी में अनेक भय

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    नदी में जड़े रहते हैं अनेक भय

    मैं असहाय समतल भूमि

    उसकी आकांक्षा और प्रेम का तट लाँघ

    बाढ़ में डूबता हूँ बार-बार

    अमूर्त स्वर में नदी गीत गाती है

    पहाड़ और जंगल का निर्जन सुनसान स्वर

    थपेड़े खाता स्वर समुद्र का

    उस गीत में सुनाई देता है

    मेरा बचपन और कैशोर्य

    उस गीत में सुनाई देता है

    मेरा समस्त अतीत

    नदी में चिपके रहते हैं अनेक भय

    देवी के अपरूप लावण्य के पुआल का ढाँचा

    चिपका रहता है कीच-पाँर में

    उसके पानी के स्वच्छ आईने में

    मेरा कंकाल झलकता है

    गोधूलि के धुँधले प्रकाश में

    साँप का सिर काटने-से भीषण प्रवाह में

    मेरी चेतना, स्थिति मेरी

    बह जाती है तिनके की तरह

    डूबता-उतरता मँडराता रहता हूँ मैं

    नदी के सपने के भयावह बवंडर में

    चित्रपट की तरह कहीं से आती हैं

    असंख्य भरी नावें

    पल में गुज़र जाती हैं

    छोड़कर गीत के दो बोल

    गीत हो जाता है आँख में बूँद भर आँसू

    आँसू हो जाता है उसके स्नेह का असीम आस्वाद

    नदी में छिपे रहते हैं अनेक भय

    चोंचदार मगरमच्छ-सा एकांत स्नेह से

    मेरे शब्द और भंगिमाओं की नववधुओं को लील

    अपलक निर्लिप्त आँखों से

    बुद्धु-सा खड़ा रहता है

    उसके सामने सिर झुकाए

    और कभी आज्ञाकारी बालक-सा

    लौट आता है उसकी गोद में

    सूर्य डूबने के बाद मुँहछिपे अँधेरे में

    नदी में लेटे रहते हैं अनेक भय

    रेत के टीले पर

    फटी-मैली कथरी पर

    सोई रहती है अँधेरे में लाचार नीरवता

    स्नेह सिर्फ़ शून्यता और पोली रेत हैं

    नदी तो बस यंत्रणा का

    अंतिम नाम अंतिम सादगी है

    उसकी धारा उसकी लहरों में

    जन्म मृत्यु प्रेम काम

    मुक्ति की अनिर्वाण गाथा

    साथ-साथ रहते हैं

    तुम नदी हो

    मैं तुम्हारा असहाय तट

    स्नेह की वेदी पर हैं समस्त कविताएँ मेरी

    यंत्रणा और आस्वाद की शुभ अष्टपदी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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