नागरी और हिंदी

nagari aur hindi

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

नागरी और हिंदी

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

     

    एक

    है एक-लिपि-विस्तार होना योग्य हिंदुस्तान में—
    अब आ गई यह बात सब विद्वज्जनों के ध्यान में।
    है किंतु इसके योग्य उत्तम कौन लिपि गुण आगरी?
    इस प्रश्न का उत्तर यथोचित है उजागर—‘नागरी’॥

    दो

    समझें अयोग्य न क्यों इसे कुछ हठी और दुराग्रही,
    लिपियाँ यहाँ हैं और जितनी श्रेष्ठ सबसे है यही।
    इसका प्रचार विचार से कल्याणकर सब ठौर है,
    सुंदर, सरल, सुस्पष्ट ऐसी लिपि न कोई और है॥

    तीन

    सर्वत्र ही उत्कर्ष इसका हो चुका अब सिद्ध है,
    यह सरल इतनी है कि जिससे ‘बालबोध’ प्रसिद्ध है।
    अति अज्ञ जन भी सहज ही में जान लेते हैं इसे,
    संपूर्ण सहृदय जन इसी से मान देते हैं इसे॥

    चार

    जैसा लिखो वैसा पढ़ो कुछ भूल हो सकती नहीं,
    है अर्थ का न अनर्थ इसमें एक बार हुआ कहीं।
    इस भाँति होकर शुद्ध यह अति सरल और सुबोध है,
    क्या उचित फिर इसका कभी अवरोध और विरोध है?

    पाँच

    है हर्ष अब नित बुध जनों की दृष्टि इस पर हो रही,
    वह कौन भाषा है जिसे यह लिख सके न सही सही?
    लिपि एक हो सकती यही संपूर्ण भारतवर्ष में,
    हित है हमारा इसी लिपि के सर्वथा उत्कर्ष में॥

    छह

    हैं वर्ण सीधे और सादे रम्य रुचिराकृति सभी,
    लिखते तथा पढ़ते समय कुछ श्रम नहीं पड़ता कभी।
    हैं अन्य लिपियों की तरह अक्षर न इसके भ्रम भरे,
    कुंचित, कठिन, दुर्गम, विषम, छोटे-बड़े खोटे-खरे॥

    सात

    गुर्जर तथा बंगादि लिपियाँ सब इसी से हैं बनी,
    है मूल उनका नागरी ही रूण-गुण-शोभा-सनी।
    अतएव फिर क्यों हो यही प्रचलित न भारत में अहो!
    क्या उचित शाखाश्रय कभी है मूल को तज कर कहो?

    आठ

    आरंभ से इस देश में प्रचलित यही लिपि है रही,
    अब भी हमारा मुख्य सब साहित्य रखती है यही।
    श्रुति, शास्त्र और पुराण आदिक ग्रंथ-संस्कृत के सभी,
    अंकित इसी लिपि में हुए थे और में न कहीं कभी॥

    नौ

    उद्देश जिनका एक केवल देश का कल्याण था,
    सुर-सदृश ऋषियों ने स्वयं इसको किया निर्माण था।
    अतएव सारे देश में कर लिपि पुन:प्रचलित यही,
    मानो महा उद्देश उनका पूर्ण करना है वही॥

    दस

    जिसमें हमारे पुण्य-पूर्वज ज्ञान अपना भर गए,
    स्वर्गीय शिक्षा का सदा का द्वार दर्शित  कर गए।
    है जो तथा सब भाँति सुंदर और सब गुण आगरी,
    प्यारी हमारी लिपि वही जीती रहे नित ‘नागरी’॥

    ग्यारह

    इसके गुणों का पूर्ण वर्णन हो नहीं सकता कभी,
    स्वीकार करते विज्ञ जन उपयोगिता इसकी सभी।
    है नाम ही इसका स्वयं निज योग्यता बतला रहा,
    प्रख्यात है जो आप ही फिर जाए क्या उस पर कहा?

    बारह

    अत्यंत आवश्यक यहाँ त्यों एक-लिपि-विस्तार है,
    त्यों एक भाषा का अपेक्षित निर्विवाद प्रचार है।
    इस विषय में कुछ कथन भी अब जान पड़ता है वृथा,
    हैं चाहते सब जन जिसे उसके गुणों की क्या कथा?

    तेरह

    ज्यों-ज्यों यहाँ पर एक भाषा वृद्धि पाती जाएगी,
    त्यों त्यों अलौकिक एकता सबमें समाती जाएगी।
    कट जाएगी जड़ भिन्नता की विज्ञता बढ़ जाएगी,
    श्री भारती जन-जाति उन्नति-शिखर पर चढ़ जाएगी॥

    चौदह

    संपूर्ण प्रांतिक बोलियाँ सर्वत्र ज्यों की त्यों रहें,
    सब प्रांत-वासी प्रेम से उनके प्रवाहों में बहें।
    पर एक ऐसी मुख्य भाषा चाहिए होनी यहाँ,
    सब देशवासी जन जिसे समझें समान जहाँ-तहाँ॥

    पंद्रह

    हो जाए जब तक एक भाषा देश में प्रचलित नहीं,
    होगा हज़ारों यत्न से भी कुछ हमारा हित नहीं।
    जब तक न भाषण ही परस्पर कर सकेंगे हम सभी,
    क्या काम कोई कर सकेंगे हाय! हम मिल कर कभी! 

    सोलह

    हा! एक भाषा के बिना इस देश के वासी यहीं—
    हम एक होकर भी अनेकों हो रहे हैं  क्या नहीं?
    पर ध्यान अब कुछ लोग हैं इस पर न धरना चाहते,
    वे जाति-बंधन तोड़ कर है ऐक्य करना चाहते!

    सत्रह

    हम पूछते हैं विश्व में वह देश ऐसा है कहाँ—
    मत भिन्न सामाजिक तथा धार्मिक न होते हों जहाँ?
    पर क्या कभी मत-भिन्नता से द्वेष होता है कहीं?
    दो नेत्र रहते भी अहो! हम देखते हैं कुछ नहीं!

    अठारह

    व्यवहार रोटी और बेटी का हुए पर भी अहो!
    क्या एक भाषा के बिना हम एक हो सकते कहो?
    अफ़सोस! जो कुछ कार्य है हम उसे तो करते नहीं,
    है जो अकार्य वृथा उसे करते हुए डरते नहीं!

    उन्नीस

    हो एक भाषा की लता सर्वत्र जिसमें लहलही,
    प्रत्येक देशी विज्ञ जन का काम है पहला यही।
    साधक बनो पहले सभी जन सिद्धि पाओगे तभी,
    क्या पूर्ण योग्य हुए बिना फल-प्राप्ति हो सकती कभी?

    बीस

    जब तक तुम्हारा तत्वमय उपदेश समझेंगे नहीं—
    हे शिक्षितो! हम अज्ञ जन क्या कर सकेंगे कुछ कहीं?
    इससे हमें उपदेश अपना देश-भाषा में करो,
    मत अन्य-भाषा-ज्ञान का गौरव दिखाने पर मरो॥

    इक्कीस

    अब एक लिपि से भी अधिकतर एक भाषा इष्ट है,
    जिसके बिना होता हमारा सब प्रकार अनिष्ट है।
    अतएव है ज्यों एक लिपि के योग्य केवल ‘नागरी’,
    त्यों एक भाषा-योग्य है ‘हिंदी’ मनोज्ञ उजागरी॥

    बाईस

    प्रख्यात है इस देश की जब ‘हिंद’ संज्ञा सर्वथा
    वासी यहाँ के जब सभी ‘हिंदू’ कहे जाते तथा।
    तब फिर यहाँ की मुख्य भाषा क्यों न ‘हिंदी’ ही रहे,
    है कौन ऐसा अज्ञ जो इस बात को अनुचित कहे?

    तेईस

    थोड़ी बहुत सर्वत्र ही यह समझ ली जाती यहाँ,
    व्यापक न ऐसी एक भाषा और दिखलाती यहाँ।
    हो क्यों नहीं इस देश की फिर मुख्य भाषा भी यही,
    है योग्य जो सबसे अधिक हो क्यों न अंगीकृत वही?

    चौबीस

    है कौन ऐसी बात जो इसमें न जा सकती कही?
    किस अर्थ की, किस समय, इसमें, कौन-सी त्रुटि है रही?
    सब विषय-वर्णन-योग्य इसमें विपुल शब्द भरे पड़े,
    हैं गद्य-पद्य समान इसमें सरस बन सकते बड़े॥

    पच्चीस

    यद्यपि अभी तक देश के दुर्भाग्य से यह दीन है,
    पर राष्ट्र-भाषा-योग्य यह किस श्रेष्ठ गुण से हीन है?
    होवे भले ही कौमुदी कृश कृष्णापक्ष-प्रभाव से,
    पर कुमुद मुद पाते नहीं क्या देख उसको चाव से?

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली-1 (पृष्ठ 221)
    • संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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