नागार्जुन के बाँदा आने पर

nagarjun ke banda aane par

केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल

नागार्जुन के बाँदा आने पर

केदारनाथ अग्रवाल

और अधिककेदारनाथ अग्रवाल

    यह बाँदा है।

    सूदख़ोर आढ़त वालों की इस नगरी में,

    जहाँ मार, काबर, कछार, मड़ुआ की फ़सलें,

    कृषकों के पौरुष से उपजा कन-कन सोना,

    लढ़ियों में लद-लद कर कर,

    बीच हाट में बिक कर कोठों-गोदामों में,

    गहरी खोहों में खो जाता है जा-जा कर,

    और यहाँ पर

    रामपदारथ, रामनिहोरे,

    बेनी पंडित, बासुदेव, बल्देव, विधाता,

    चंदन, चतुरी और चतुर्भुज,

    गाँवों से आ-आ कर गहने गिरवी रखते,

    बढ़े ब्याज के मुँह में बर-बस बेबस घुसते,

    फिर भी घर का ख़र्च नहीं पूरा कर सकते,

    मोटा खाते, फटा पहनते,

    लस्टम-पस्टम जैसे-तैसे भरते-खपते,

    न्याय यहाँ पर अन्यायों पर विजय पाता,

    सत्य सरल होकर कोरा असत्य रह जाता,

    न्यायालय की ड्योढ़ी पर दब कर मर जाता,

    यहाँ हमारे भावी राष्ट्र-विधाता,

    युग के बच्चे,

    विद्यालय मे वाणी विद्या-बुद्धि पाते,

    विज्ञानी बनने से वंचित रह जाते,

    केवल मिट्टी में मिल जाते।

    यह बाँदा है,

    और यहाँ पर मैं रहता हूँ,

    जीवन-यापन कठिनाई से ही करता हूँ,

    कभी काव्य की कई पंक्तियाँ,

    कभी आठ-दस बीस पंक्तियाँ,

    और कभी कविताएँ लिखकर,

    प्यासे मन की प्यास बुझा लेता हूँ रस से,

    शायद ही आता है कोई मित्र यहाँ पर,

    शायद ही आती हैं मेरे पास चिट्ठियाँ।

    मेरे कवि-मित्रों ने मुझ पर कृपा की है,

    इसीलिए रहता उदास हूँ, खोया-खोया,

    अपने दुख-दर्दों में डूबा,

    जन-साधारण की हालत से ऊबा-ऊबा,

    बाण-बिंधे पक्षी-सा घायल,

    जल से निकली हुई मीन-सा, विकल तड़पता,

    इसीलिए आतुर रहता हूँ,

    कभी-कभी तो कोई आए,

    छठे-छमाहे चार-पाँच दिन तो रह जाए,

    मेरे साथ बिताए,

    काव्य, कला, साहित्य-क्षेत्र की छटा दिखाए,

    और मुझे रस से भर जाए, मधुर बनाए,

    फिर जाए, जीता मुझको कर जाए।

    आख़िर मैं भी तो मनुष्य हूँ,

    और मुझे भी कवि-मित्रों का साथ चाहिए,

    लालायित रहता हूँ मैं सबसे मिलने को,

    श्याम सलिल के श्वेत कमल-सा खिल उठने को।

    सच मानो जब यहाँ निराला जी आए थे,

    कई साल हो गए, यहाँ कम रह पाए थे,

    उन्हें देख कर मुग्ध हुआ था, धन्य हुआ था,

    कविताओं का पाठ उन्हीं के मुख से सुनकर,

    गंधर्वों को भूल गया था,

    तानसेन को भूल गया था,

    सूरदास, तुलसी, कबीर को भूल गया था,

    ऐसी वाणी थी हिंदी के महाकृती की।

    तब यह बाँदा काव्य-कला की पुरी बना था,

    और साल पर साल यहाँ मधुमास रहा था,

    बंबेश्वर के पत्थर भी बन गए हृदय थे,

    चूनरिया बन गई हवा थी, गौने वाली,

    और गगन का राजा सूरज दूल्हा बन कर,

    चूम रहा था प्रिय दुलहन को।

    फिर दिन बीते, मधु-घट रीते,

    फिर पहले-सा यह नीरस हो गया नगर था,

    फिर पहले-सा मैं चिंतित था,

    फिर मेरा मन भी कुंठित था,

    फिर लालायित था मिलने की कवि-मित्रों से,

    फिर मैं उनकी बाट जोहता रहा निरंतर,

    जैसे खेतिहर बाट जोहता है बादल की,

    जैसे भारत बाट जोहता है सूरज की,

    किंतु कोई आया,

    आने के वादे मित्रों के टूटे,

    कई वर्ष फिर बीते,

    रंग हुए सब फीके,

    और कोई रही हृदय में आशा।

    तभी बंधुवर शर्मा आए,

    महादेव साहा भी आए,

    और निराला-पर्व मनाया हम लोगों ने,

    मुंशी जी के पुस्तक-घर में,

    एक बार फिर मिला सुअवसर मधु पीने का,

    कविता का झरना बन कर झर-झर जीने का,

    लगातार घंटों, पहरों तक,

    एक साथ साँसें लेने का,

    एक साथ दिल की धड़कन से ध्वनि करने का,

    ऐसा लगा कि जैसे हम सब,

    एक प्राण हैं, एक देह हैं, एक गीत हैं, एक गूँज हैं

    इस विराट फैली धरती के,

    और हमी तो वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं,

    तुलसी हैं, हिंदी कविता के हरिशचंद्र हैं,

    और निराला हमी लोग हैं,

    बंधु! आज भी वह दिन मुझको नहीं भूलता,

    उसकी स्मृति अब भी बेले-सी महक रही है,

    उस दिन का आनंद आज

    कालिदास का छंद बना मन मोह रहा है,

    मुक्त मोर बन श्याम बदरिया भरे हृदय में,

    दुपहरिया में, शाम-सबेरे नाच रहा है,

    रैन-अँधेरे में चंदनियाँ बाँह पसारे,

    हमको, सबको भेंट रहा है।

    संभवतः उस दिन मेरा नव जन्म हुआ था,

    संभवतः उस दिन मुझको कविता ने चूमा,

    संभवतः उस दिन मैंने हिमगिरि को देखा,

    गंगा के कूलों की मिट्टी मैंने पाई,

    उस मिट्टी से उगलती फ़सलें मैंने पाईं,

    और उसी के कारण अब बाँदा में जीवित रहता हूँ,

    और उसी के कारण अब तक कविता की रचना करता हूँ,

    और तुम्हारे लिए पसारे बाँह खड़ा हूँ,

    आओ साथी गले लगा लूँ,

    तुम्हें, तुम्हारी मिथिला की प्यारी धरती को,

    इसमें व्यापे विद्यापति को,

    और वहाँ की जनवाणी के छंद चूम लूँ,

    और वहाँ के गढ़-पोखर का पानी छू कर नैन जुड़ा लूँ,

    और वहाँ के दुखमोचन, मोहन माँझी को मित्र बना लूँ,

    और वहाँ के हर चावल को हाथों में ले हृदय लगा लूँ,

    और वहाँ की आबहवा से वह सुख पा लूँ

    जो नृत्यों में नाचा जा कर कभी चुकता,

    जो आँखों में आँजा जा कर कभी चुकता,

    जो ज्वाला में डाला जा कर कभी जलता,

    जो रोटी में खाया जा कर कभी कमता,

    जो गोली से मारा जा कर कभी मरता,

    जो दिन दूना रात चौगुना व्यापक बनता,

    और वहाँ नदियों में बहता,

    नावों को ले आगे बढ़ता,

    और वहाँ फूलों में खिलता,

    बागों को सौरभ से भरता।

    अहोभाग्य है जो तुम आए मुझसे मिलने,

    इस बाँदा में चार रोज़ के लिए ठहरने,

    अहोभाग्य है मेरा, मेरे घर वालों का,

    जिनको तुम स्वागत से हँसते देख रहे हो।

    अहोभाग्य है इस जीवन के इन कूलों का,

    जिनको तुम अपनी कविता से सींच रहे हो।

    अहोभाग्य हैं हम दोनों का,

    जिनको आजीवन जीना है काव्य-क्षेत्र में।

    अहोभाग्य है हम दोनों की इन आँखों का,

    जिनमें अनबुझ ज्योति जगी है अपने युग की।

    अहोभाग्य है दो जनकवियों के हृदयों का

    जिनकी धड़कन गरज रही है घन-गर्जन-सी।

    अहोभाग्य है कठिनाई में पड़े हुए प्रत्येक व्यक्ति का,

    जिनका साहस-शौर्य घटता।

    अहोभाग्य है स्वयं उगे इन सब पेड़ों का,

    जिनके द्रुम-दल झरते फिर-फिर नए निकलते।

    अहोभाग्य है हर छोटी चंचल चिड़िया का,

    जिनका नीड़ बिगड़ते-बनते देर लगती।

    अहोभाग्य है बंबेश्वर की चौड़ी-चकली चट्टानों का,

    जिनको तुमने प्यार किया है, सहलाया है।

    अहोभाग्य है केन नदी के इस पानी का,

    जिसकी धारा बनी तुम्हारे स्वर की धारा।

    अहोभाग्य है बाँदा की इस कठिन भूमि का,

    जिसको तुमने चरण छुला कर जिला दिया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चुनी हुई कविताएँ (पृष्ठ 39)
    • संपादक : नरेंद्र पुंडरीक
    • रचनाकार : केदारनाथ अग्रवाल
    • प्रकाशन : अनामिका प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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