द्रौपदी

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कुलदीप कुमार

कुलदीप कुमार

द्रौपदी

कुलदीप कुमार

और अधिककुलदीप कुमार

    अंतिम यात्रा है

    हिमालय की पीठ पर चलते-चलते

    जाने कितनी चोटियाँ नीचे रह गईं

    चलना दुश्वार हो गया है

    घिसटने के अलावा कोई

    चारा भी तो नहीं

    यूँ भी जीवन भर

    घिसटती ही तो रही हूँ

    यदि कभी चली भी हूँ तो

    दूसरों ही के पैरों पर

    सबसे आगे मेरा ज्येष्ठ पति

    सारी विपत्तियों की जड़

    निर्लज्ज युधिष्ठिर

    चला जा रहा है

    अपने कुत्ते को साथ लिए

    बिना किसी की ओर देखे

    पहले ही कब इसने किसी और की चिंता की

    जो अब करेगा?

    कभी समझ नहीं पाई

    ऐसे आत्मकेंद्रित, निकम्मे और ढुलमुल स्वभाव के आदमी को

    लोग धर्मराज क्यों कहते हैं

    मैंने तो इसे कभी कोई धर्म का काम करते नहीं देखा

    हाँ, धर्म की जुमलेबाज़ी

    इससे चाहे जितनी करवा लो

    अगर जुआ खेलना

    और अपनी सारी संपत्ति, भाइयों और पत्नी को

    दाँव पर लगाकर हार जाना

    धर्म का काम है

    तब यह ज़रूर

    धर्मराज कहलाने का अधिकारी है

    एक यही काम तो इसने अपने बलबूते पर किया

    वरना तो सारे काम भीम और अर्जुन के ही हिस्से में आते थे

    और यह बड़े भाई के अधिकार से

    उनका फल भोगता था

    मुझे भी तो सबसे पहले इसी ने भाेगा

    मुझे स्वयंवर में जीतने वाले अर्जुन की बारी

    तो भीम के भी बाद आई

    यह जीवन भर धर्म की व्याख्या करता रहा

    उस पर चला एक दिन भी नहीं

    और मैं?

    पूरा जीवन मेरा

    अंगारों पर ही गुज़रा

    गुज़रता भी क्यों नहीं

    मेरा तो जन्म ही

    यज्ञकुंड की अग्नि के गर्भ से हुआ था

    और तभी से मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गई थी

    हर क्षण यही सोचती रही हूँ

    मैं पैदा ही क्यों हुई?

    क्या सार रहा मेरे इस जीवन का

    क्या मिला मुझे?

    पाँच-पाँच पुरुषों की कामाग्नि का संताप, दुस्सह अपमान

    अर्जुन जैसे प्रेमी-पति की उपेक्षा

    स्वयंवर में विजयी होने के बाद

    कैसी प्रेमसिक्त दृष्टि से देखा था

    अर्जुन ने मुझे

    वह सुदर्शन चेहरा मुझसे मिलने की आस में

    कैसा दिपदिपा रहा था

    उसकी आँखों में

    प्यार का महासागर था

    और मेरी सास कुंती ने

    कितनी चालाक निष्ठुरता के साथ

    मुझे पाँचों भाइयों की सामूहिक पत्नी बना डाला

    कुलवधू की ऐसी परिभाषा

    कभी देखी गई, सुनी गई

    उस क्षण से अर्जुन के चेहरे की कांति जो लुप्त हुई

    तो फिर कभी नहीं लौटी

    उसकी आँखें हमेशा शून्य में किसी को

    ढूँढ़ती रहती थीं

    शायद घूमती हुई मछली की आँख को

    जिसके भेदन के बाद उसने

    मुझे

    प्राप्त किया था

    बस वही तो एक क्षण था

    जब मैं

    उसकी थी—

    केवल उसकी

    टूटे हुए हृदय के साथ

    उसने सुभद्रा और उलूपी के साथ विवाह किया

    जो प्रेम उसे मुझसे नहीं मिला

    शायद उसी की तलाश में

    लेकिन यहाँ भी वह निराश ही हुआ

    उसके मुख पर कभी वह उल्लास और आनंद दिखा ही नहीं

    जो स्वयंवर के समय दिखा था

    महाभारत के युद्ध का

    सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रेम में

    निराश

    विफल

    विकल

    जिसके हृदय में इतने बाण धँसे

    कि वह उसका तूणीर ही बन गया

    अंतिम समय में

    लग रहा है

    जीवन कभी शुरू ही नहीं हुआ

    कभी साँस ली ही नहीं,

    सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुभव ही नहीं किया

    चाँदनी की रहस्यमय शीतल हथेली ने

    मुझे कभी स्पर्श ही नहीं किया

    मुझे आज तक समझ में नहीं आया

    कि स्थिर स्वभाव वाली गरिमामयी कुंती ने

    मेरे साथ ऐसा हृदयहीन व्यवहार क्यों किया

    क्या वही मेरे जीवन के नरक से भी बदतर बनने की

    एकमात्र ज़िम्मेदार नहीं है?

    उसने मुझे पाँचों भाइयों के साथ बाँधा होता

    और यह क्लीव युधिष्ठर मेरा सर्वसत्तावान

    पति बनकर

    मुझे जुए में दाँव पर लगा पाता

    और कर्ण, दुर्योधन और दुःशासन की हिम्मत होती

    कि मुझे भरी राजसभा में निर्वसन करने की कोशिश कर सकें

    जहाँ भीष्म और विदुर जैसे ढोंगी नीतिज्ञ बैठे थे

    केवल एक विकर्ण था

    जिसने मेरे पक्ष की बात की थी

    दुर्योधन का भाई, गांधारी का पुत्र

    विकर्ण

    उसने मनुष्यता में मेरे विश्वास को

    नष्ट होने से बचाया था

    कुंती कभी अच्छी सास तो बन ही नहीं सकी

    क्या वह अच्छी माँ बन पाई?

    नहीं

    कर्ण के साथ उसने हमेशा अन्याय किया

    वरना ऐसा उदार, ऐसा दानी, ऐसा वीर

    क्या कभी ऐसा दुष्टता का बर्ताव कर सकता था

    जैसा उसने मेरे साथ किया

    कुरुओं की राजसभा में

    कुंती ने उसे स्वीकार किया

    केवल अपने स्वार्थ के लिए

    ममता के कारण नहीं

    फिर भी उसने उस निष्ठुर माँ को

    पूरी तरह निराश नहीं किया

    और कहा कि वह केवल अर्जुन के साथ ही युद्ध करेगा

    उसने तो अर्जुन के साथ भी ऐसा अन्याय किया

    कि संभवतः कभी किसी माँ ने नहीं किया होगा

    स्वयंवर में मुझे प्राप्त किया अर्जुन ने

    और पाँचों भाइयों से बाँध दिया मुझे कुंती ने

    क्या उसे अर्जुन के मुख पर छाई वेदना नज़र नहीं आई?

    स्वयंवर में अर्जुन की जीत के बाद

    मुझे कभी उस पर प्यार नहीं आया

    हमेशा मन में तिक्तता

    ही बनी रही

    क्या वह कुंती से नहीं कह सकता था

    कि वह मुझे भिक्षा में नहीं

    स्वयंवर में जीत कर लाया है

    और मुझ पर केवल उसी का अधिकार है

    क्या वह मुझे इस भीषण अपमान और जीवन भर के दुःख से

    नहीं बचा सकता था?

    क्या माँ की मतिहीन आज्ञा का पालन करना

    मेरे पूरे जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण था?

    किससे था मुझे सच्चा प्रेम?

    और किसे था मुझसे सच्चा प्रेम?

    शायद कृष्ण से

    शायद कृष्ण को

    सखा-सखी का

    शुद्ध वासनारहित प्रेम

    अधिकांश मनुष्य

    ऐसे प्रेम को असंभव समझते हैं

    मानते हैं कि

    स्त्री-पुरुष के बीच कामरहित प्रेम

    हो ही नहीं सकता

    लेकिन इससे बड़ा झूठा कोई नहीं है

    मेरा सखा कृष्ण

    जाने कैसे मेरी बात

    बिना कहे ही समझ जाता था

    घंटों-घंटों मुझसे बातें करता था

    दुनिया-जहान की बातें

    अपनी और राधा की बातें

    ब्रज की बातें

    रुक्मिणी और सत्यभामा के झगड़े

    सब मुझे ही तो बताकर जाता था

    कृष्णा का कृष्ण

    जिसने मेरी लज्जा को

    अपनी लज्जा समझा

    दुर्योधन को मैंने

    केवल उसी के तेज़ के सामने सहमते देखा

    कितनी कोशिश की उसे बंदी बनाने की

    लेकिन वह तो

    कारागृह में जन्मा था

    उसे कौन बंदी बना सकता था!

    आगे अब कोई राह नहीं है

    कभी थी भी नहीं

    जिसने चाहा उसी ने किसी भी राह पर धकेल दिया

    अब हिमालय मुझे अपनी गोद में ले ले

    तो मेरी यात्रा पूरी हो

    अग्निकुंड से

    हिमशिखर तक की

    अर्थहीन यात्रा...

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुलदीप कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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