मृत्यु : आठ कविताएँ

mirtyu ha aath kawitayen

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

मृत्यु : आठ कविताएँ

वंशी माहेश्वरी

और अधिकवंशी माहेश्वरी

     

    उद्भव

    जीवन उद्गम में
    जीवन के बाहर होने का
    संदेह छिपा है

    मृत्यु 
    संशय के बाहर होकर
    अपनी अथाह शांति के
    पवित्र आलोक में
    प्रकाशित होती है
    संपूर्ण।

     

    आसक्ति

    मृत्यु
    जीवन में संचित होती हुई
    जीवित होने की तलाश में
    भटकती है
    साँस के पारदर्शी एकांत में।

    जीवन
    शब्द की संभावना की तरह बिछा है
    बीहड़ दुर्गम
    जहाँ मृत्यु का स्वायत्त संसार
    रूपायित होता है निस्संग
    और जीवन की तीव्रता
    न्यौछावर होती है
    स्वप्न और यथार्थ के उत्कर्ष में
    मृत्यु
    बार बार मथती रहती है
    अपना एकांतिक उद्वेग!

    इसके आर पार
    क्लांति भरी नीरवता के स्याह रंग में
    बहुत गहरे
    डूब जाती है आसक्ति!

     

    रास्ता

    मृत्यु की
    आने जाने की
    पैतृक परंपरा को
    नहीं जानते

    नहीं जानते
    आने जाने के बीच
    जो रास्ता छूट गया है
    वह उसकी स्मृतियों का
    जीवित इतिहास है
    या
    प्रायश्चित्त का बीजमंत्र।

     

    आकाश

    प्रकृति
    आँख उठाकर
    आकाश निहारती है

    आकाशत्व में लीन आकाश
    अपने नीले सपनों में
    असीम दुनिया जीता है।

    प्रकृति
    गहरी पीड़ा की विह्वलता
    स्मृतियों में फैलाकर
    अपनी थकी आँखों में
    लौट आती है।

    मृत्यु की परिक्रमा
    लगाता आकाश
    प्रकृति के बिल्कुल पास आकर
    अपने असह्य
    एहसासों को छोड़ जाता है।

     

    हवा

    मृत्यु की उदासी में
    हवा
    भटकती है
    निस्संग
    एकाग्र।

    प्रकृति की काँपती
    थरथराती लय में
    मृत्यु में जन्म की संपदा
    छोड़कर
    चक्कर काटती है निरंतर।

    हवा
    अनंत एकांत में
    आकाश से बहुत नीचे
    ठहर जाती है—कृतघ्न।

     

    अमरता

    पीड़ा के अक्षुण्ण संकट में
    बेख़बर होकर यात्रा करती है अनुगूँज
    असह्य निरीहता
    धैर्य की आँखों में
    गिर जाती है।

    व्याकुल समय
    हरी धमनियों में बहकर
    धूसर रंग में लीन भूख को बाहर करता है
    यही वक़्त होता है
    दुस्साहस के चक्र में बिंध जाने का
    यही वक़्त होता है
    अमरता में जन्मी मृत्यु का
    जिसे अंत तक
    पूर्ण होते होते
    रह जाना है अपूर्ण। 

     

    मृत्यु के खँडहर

    फिर लौटकर घर आया
    मन के शरीर में बसा है घर
    लौटकर आया शायद मैं नहीं शायद शब्द
    या पराजय की उद्दाम इच्छा।

    जानता हूँ
    किसी भी समय
    दृश्य के बाहर होकर
    उसके मोहक निर्लिप्त अर्थों में
    गूँजेगी मृत्यु!
    जो धीरे-धीरे बहती हुई
    डूब 
    जाएगी
    मुझ में
    अनंत में...

     

    जीवन ठीक मृत्यु की तरह प्रार्थनारत है

    लगभग सभी चीज़ों के होते हैं
    कुछ-न-कुछ मापदंड
    होती रहती हैं वे गाहे-बगाहे निर्धारित
    अपने-अपने आरंभ, शेष और अवशेष के अस्तित्व में
    जीवन नापने के लिए बने हैं
    समय, दिन, माह, वर्ष और वग़ैरह-वग़ैरह
    उम्र के साथ गिनकर
    दर्ज कर लिया जाता है जीवन
    पारिवारिक किताब में, इतिहास में, स्मृति में।

    जीवन ठीक मृत्यु की तरह प्रार्थनारत है
    जिसमें गिरती रहती हैं
    टूटती, उठती, खोजती, अधूरी सहस्रधाराएँ
    नहीं होते उनमें इस तरह
    नाप-माप के ताप
    जिस तरह स्वप्न के साथ होती नहीं हैं आँखें
    जिस तरह उम्मीद के साथ होती नहीं हैं संभावनाएँ
    जिस तरह सच के साथ होती नहीं हैं शर्मिंदगियाँ।

    चलते रहते हैं
    कितने ही शब्द
    उछलते रहते हैं
    कितने ही अर्थ
    कितनी ही कविताएँ होती रहती हैं न्यौछावर कविता में
    जिस तरह
    पवित्रता में गिरती रहती है अपवित्रता
    तब भी बचा रहता है बोध
    उस फूल की अंतिम कुम्हलाई पत्ती की तरह
    या उस बच्चे के कोमल गालों पर बहती
    एकांत बूँदों की तरह
    जिसमें ठहर जाता है प्रतिबिंबित क्षण

    मैं जानता हूँ उतना कि जानता हूँ जितना
    इन चीज़ों के बारे में
    कि रहस्य खुलने में
    छूट जाएगा बहुत पीछे अमर्त्य समय।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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