दुपहर में रिक्शा

duphar mein rickshaw

मोहिनी सिंह

मोहिनी सिंह

दुपहर में रिक्शा

मोहिनी सिंह

और अधिकमोहिनी सिंह

     

    आसमान में अब घुलती है धूप

    हल्दी जैसे चढ़ती है उसके बदन पर
    खारी बूँदों का बरसता है बादल
    काला पत्थर चमकता है धुलकर

    परछाइयाँ घटती हैं हर दुपहर
    लपकती हैं पिछली सीट

    ठहरती है सड़क हौले से
    छेकती है छाँव से नींद

    लाल नाख़ूनों से याद आती है
    छुटकी साली
    और फिर उसकी बहन
    साँझ लजाती है
    ओढ़ लेती है पीली धूप का आँचल
    दाँत में दबा लेती है किनारी
    और गीला हो जाता है सूरज
    आँख से टपकता नहीं
    सीने में सन जाता है
    दो गोरी टाँगें और कंधे
    आते हैं चले जाते हैं
    कत्थई मेहंदी वाले साँवले पाँव जम जाते हैं

    धूप में घुलता है कत्थई
    लाल को नारंगी करता है कत्थई
    पपड़ी जैसे होंठों से
    उधड़ता है कत्थई
    बढ़ता है परछाइयों का बोझ
    भागता है दिन फिर तीन पहियों पर
    उड़ता है रंग पीली बिहौती1 का
    सूखता है बादल
    बहते हैं तेज़ क़दम
    कि अबरी2 गिल्लट3 का पायल बनेगा
    दुपहर छनक के आएगी
    और झनकती हुई दुपहर को
    ये शाम कमाएगी

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहिनी सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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