जब हम घरों में बंद थे

jab hum gharon mein band the

मदन कश्यप

मदन कश्यप

जब हम घरों में बंद थे

मदन कश्यप

और अधिकमदन कश्यप

    जब हम घरों में बंद थे

    आस-पास की गलियाँ और सड़कें सूनी थीं

    हज़ारों लोग जाने किन गलियों से निकलकर

    राजमार्गों पर गए थे

    दूर से वे बस झुंड लगते थे

    ग़ौर से देखने पर ही पूरे मनुष्य दिखते थे

    गोद में बच्चे को सँभालती स्त्री

    कंधे पर बीमार पिता को बिठाए युवक

    ढेर सारे बच्चे-बूढ़े-जवान-अधेड़

    कंधे पर थैला और आँखों में उजाड़

    वे अलग-अलग दिशा से आए थे

    और जाना भी उन्हें अलग-अलग ही था

    किसी को गोरखपुर तो किसी को भागलपुर

    किसी को अलीगढ़ के पास ही रुक जाना है

    किसो को सुदूर अररिया के

    गाँव तक जाना है

    कोई किसी को नहीं जानता था

    बस एक दुख था जो सबको पहचानता था

    हज़ारों की संख्या धीरे-धीरे

    लाखों में बदलती जा रही थी

    दिल्ली से मुंबई से

    दर्जनों रास्तों से गुज़रते हुए

    बेचैन क़ाफ़िले चले रहे थे

    एक जैसे बदहाल

    एक जैसे निढाल लोग

    बिना कुछ बोले ही

    एक-दूसरे का हौसला बढ़ा रहे हैं

    गाँव के अपने छोटे-छोटे घरों से

    छोटे-छोटे सपनों के साथ

    अपने परिजनों की यादों को

    सीने से लगाए

    अलग-अलग समय में वे तब आए थे

    जब बावली आकांक्षाएँ हृदय के कोटर में

    चुपचाप सोए रहने से इनकार करने लगी थीं

    उन्होंने रिक्शे चलाए

    चाय के गिलास धोए

    पीठ पर बोरे लादे

    माथे पर गारा-ईंटें उठाकर

    पचास मंज़िली इमारतें बनाई

    सब्ज़ियाँ बेचीं

    अख़बार बाँटे

    अपने सपनों को बदरंग करके

    शहर की रंगीनियाँ बढ़ाईं

    लेकिन उन्हें एक साथ लौटते देखकर

    लग नहीं रहा था कि

    वे साथ-साथ नहीं थे

    एक रोता था

    तो दूसरे को चुप्पी ढाढ़स

    बँधाती थी

    पुलिस डंडे बरसाती

    तो वे चुपचाप मार खा लेते थे

    मुर्ग़ा बनाती, मेढक बनाती

    तो बन जाते थे

    सड़क पर घिसट-घिसटकर

    चलने को मजबूर करती

    ते वे घिसट लेते थे

    उसके बाद सिपाहियों को भी

    समझ में नहीं आता था

    कि उन्हें रोकें तो कैसे

    वे इतने भूखे थे

    कि उनकी भूख

    भूख में ही

    डूबती चली जा रही थी

    बच्चों को कुछ खाना मिल जाए

    इससे अधिक

    वे कुछ सोच नहीं पा रहे थे

    जब आए थे

    तब भले ही सबके सपने

    अलग-अलग थे

    अब लौटते वक़्त

    सबका ध्वंस एक जैसा था

    ग़रीबी और लाचारी से बनी

    आपसदारी के साथ

    वे चले जा रहे थे

    जली हुई झोपड़ी के मलबे में

    जलने से बची रह गई

    एक गुड़िया की तरह

    बची हुई उम्मीद के सहारे!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मदन कश्यप
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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