जिन्हें मैंने देखा रेलवे स्टेशन के पास

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सत्येंद्र कुमार

सत्येंद्र कुमार

जिन्हें मैंने देखा रेलवे स्टेशन के पास

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

    वे अंतरिक्ष से भागे लोग नहीं

    इसी पृथ्वी के बाशिंदे थे

    जो घर का सपना लिए

    भटकते रहे थे सदियों से।

    रेलवे लाइनों की बीच की ज़मीन पर

    वे बसाते रहे थे अपना कुनबा।

    वहाँ दीवारें नहीं थीं,

    परदे नहीं थे;

    वहाँ ईंट के बने चूल्हे थे

    और जले कोयले के टुकड़े

    जिन्हें उनके बच्चों ने

    दिन-रात भटकने के बाद जमा किया था।

    लकड़ी के कुंदों के बीच

    छिपी काली छिपकलियाँ,

    छोटे-छोटे गड्ढों और नालियों में रहते मेढक

    उनके पड़ोसी थे,

    जो जब कभी उछलते

    जा गिरते उनके अल्युमिनियम के कटोरे में,

    जब भात खाने की तैयारी में रहता पूरा परिवार।

    वे रोज़ सबेरे

    शहर के समंदर में खो जाते;

    देर रात जब लौटते

    तब इतना भर होता उनके पास

    कि किसी तरह फिर से बटोर सकें

    सवेरे के लिए ताक़त।

    उन्होंने चिलचिलाती धूप, बरसते पानी से

    वैसे ही समझौता कर लिया था

    जैसे कि रोज़-रोज़ पिटने वाला लड़का

    अपने पिता से कर लेता है।

    वे रात में

    गुज़रती ट्रेनों की सीटियों के बीच भी

    खर्राटे लेकर सोते

    वे ज़मीन पर ऐसे लेट जाते

    मानो माँ की गोद हों

    आसमान को ऐसे ओढ़ लेते

    मानो माँ ने उनके चेहरों पर

    अपना आँचल पसार दिया हो।

    उन्होंने घर से भागे लड़के-लड़कियों की तरह नहीं,

    अपने बढ़ते बच्चों के कारण

    मालगाड़ी के पीछे छुपकर

    खुले में संभोग किया

    बच्चे जने।

    उन्होंने वह सब कुछ किया

    जो सभ्य समाज में वर्जित था।

    उन्होंने प्लेटफ़ॉर्म पर होती दौड़-धूप में

    कभी हिस्सा नहीं लिया,

    उन्होंने संसद में चल रही गतिविधियों पर

    बातचीत नहीं की

    उन्होंने सौंदर्य प्रतियोगिता में

    भाग लेने वाली सुंदरियों की तरह कूल्हे नहीं मटकाए

    उन्होंने रोज़ सिर्फ़ उतना ही खाया

    जितना चिड़िया आँगन से

    घर के लोगों की आँखों से बचाकर

    चुगकर ले जाती है दाना

    अपने बच्चों के लिए।

    इस धरती पर

    इस समाज में

    लोगों के बीच

    उनकी पहचान इतनी भर भी नहीं थी

    जितनी प्लेटफ़ॉर्म पर बिखरे मूँगफली के छिलके।

    सबसे कम खाने वाले लोग

    सबसे कम जगह घेरने वाले लोग

    आदमियों की दुनिया में प्रेत बनकर जीने वाले लोग

    किसी समय वहाँ से भी खदेड़ दिए जाएँगे ‘लुटेरे’ कहकर।

    वहाँ से जाने के बाद

    शायद ही किसी को पता हो

    कि कहाँ गए वहाँ के बाशिंदे।

    कोई नहीं जान पाएगा

    कि वहाँ टिके रहने के लिए

    कितना कुछ खोना पड़ा है उन्हें,

    कि कैसे सुरक्षा के नाम पर बदजातों ने

    गर्भवती औरतों तक से अपना हिस्सा माँगा,

    और उनके भीतर पल रहे भ्रूणों तक की हत्या की।

    लोग भूल जाएँगे उन हत्यारों के नाम

    सिर्फ़ सुनाएँगे एक-दूसरे को

    उन औरतों के साथ हुई घटनाओं का राज चटखारे ले-लेकर,

    रोज़ की तरह

    साँप, चूहे, छिपकलियाँ, मेढक—

    सब लौटेंगे अपने-अपने घरों की ओर,

    धूप और बारिश से बचने के ठिकानों की ओर,

    लौटेंगे थके परिंदों के झुंड...

    इस पृथ्वी से ऊबे लोग

    अंतरिक्ष में तलाशते अपनी ख़ुशियाँ।

    रेलवे स्टेशन की तमाम चकाचौंध के बीच

    वे फिर किसी दूसरी जगह जाने की तैयारी में

    बटोर रहे होंगे अपना संसार।

    धीरे-धीरे लोग भूल जाएँगे

    कि कभी उनसे आबाद थी यह धरती

    उनके टूटे घड़ों के टुकड़ों,

    जले कोयलों,

    बुझे चूल्हों से

    एक कहानी तब भी जुड़ी रह जाएगी—

    क्यों चले गए थे वे अचानक?

    जबकि प्रेत भी बसा लेते हैं

    किसी पेड़ पर स्थाई अपना ठिकाना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आशा इतिहास से संवाद है (पृष्ठ 72)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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