जस्ट टियर्स

jast tiyars

व्योमेश शुक्ल

व्योमेश शुक्ल

जस्ट टियर्स

व्योमेश शुक्ल

और अधिकव्योमेश शुक्ल

     

    भीड़ बढ़ी तकलीफ़ें बढ़ीं मामा की दवा की दुकान में आकर लोग दवाई माँगने लगे। कुछ लोग सिर्फ़ फुटकर करवाने आते थे जिनसे कहना होता था—‘नहीं’। कुछ लोग कुछ लोगों का पता पूछने आते थे जिनसे कहना होता था—‘उधर से उधर से उधर’। 

    ज़िला अस्पताल के बाहर एक पेड़ था और मरीज़ को उसका नाम नहीं मालूम था। वसंत में उसका यौवन और उसकी खिली हुई आपत्तियाँ नहीं मालूम थीं। उसे अपनी बीमारी का नाम नहीं मालूम था। उसे अपने गाँव का नाम मालूम था। एक दिन एक लड़की ने मुझसे पूछा कि तुमने अस्पताल के बाहर वाले पेड़ का अजीब देखा है तो मैंने कहा कि हाँ। यह देखने का साझा था। मैं उस पेड़ को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानना चाहता था, लेकिन लड़की के सवाल के बाद कुछ दिनों के लिए मैंने यह मानना-चाहना टाल दिया।

    लुब्रिकेशन कम हो गया था। हर चीज़ दूसरी चीज़ से रगड़ खा रही थी। माँ के घुटनों की तरह। हर पहले और हर दूसरे के बीच तीसरे तत्त्व का अभाव था। पलक झपकाने में भी बड़ा घर्षण था। लोग एकटक देखते रह जाते थे। यह देखने की मजबूरी थी। आँखों की बीमारी। कुछ लोगों को लगता था कि इसका इलाज हो सकता है। अब आँखों और पलकों के बीच की चीज़ ग़ायब थी तो रोना मुश्किल हो गया। लोग रोने के लिए घबरा गए। बाँधों, घड़ियालों और दलालों को भी दिक़्क़त हो गई। डॉक्टर पेड़ के अजीब के पड़ोस में बैठकर लुब्रिकेशन की दवा लिखने लगे। दवाई का नाम था—जस्ट टियर्स।

    मैं बहुत ख़ुश होकर रोने की दवाई बेचने लगा।

    जस्ट टियर्स। यह जस्ट फिट का कुछ लगता था। फूफा के लड़के का दोस्त टाइप कुछ। जस्ट फिट और जस्ट टियर्स के बीच कुछ था जो हर पहले और हर दूसरे के बीच के तीसरे तत्त्व की तरह आजकल नहीं था जैसे जस्ट फिट नाम की दुकान के ऊपर रहने वाले इंसान और जस्ट टियर्स नाम की दवाई बेचने वाले इंसान के बीच कुछ था जो आजकल नहीं था।

    रोना लुब्रिकेशन की कमी दूर कर देता। मैं रोना चाहने लगा। बाँधों, घड़ियालों और दलालों की तरह। मैं बाँध होना चाहने लगा। भाखड़ा नांगल, हीराकुंड या रिहंद। मैं नेहरू के ज़माने का नवजात बाँध होता तो राष्ट्र की संपत्ति होता। मेरे बनने में सबकी दिलचस्पी होती। पंद्रह दिन पर पंत जी और महीना पूरा होने पर पंडित जी मेरा जायज़ा लेने आते। मैं बहुत-से लोगों को विस्थापित कर देता और बहुत-सी मछलियों को संस्थापित लेकिन विस्थापितों के लिए रोने में मुझे जस्ट टियर्स की ज़रूरत न पड़ती। लुब्रिकेशन ख़त्म न हो गया होता। मेरे और विस्थापितों के बीच कुछ न कुछ होता। मेरे भीतर बहुत-सा पानी होता और बहुत-सी बिजली और बहुत-सी नौकरी और बहुत-से फाटक और बहुत-सी कर्मठता और और बहुत-सी ट्रेड यूनियनें और बहुत-सी हड़ताल और और बहुत-सी गिरफ़्तारी और बहुत-सी नाफ़रमानी।

    मैं कहना न मानता। अंधकार और दारिद्रय में मैं पीले रंग का बल्ब बनकर जलता। मुझे बचाने और बढ़ाने की कोशिशें होतीं। मेरा भी दांपत्य होता और वसंत पंचमी होती मेरी शादी की सालगिरह। मैं मिठाई बाँटता और पगले कवि की तरह कहता कि मेरा जन्मदिन भी आज ही है। पेड़ के अजीब के साथ मेरा बराबरी का रिश्ता होता। मैं उसके कान में फुसफुसाता : ‘फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन... मफ़ाएलुन, मफ़ाएलुन...’। मेरे पेट में गाद न जमा होती। मुश्किल में मेरे दरवाज़े कभी भी खुल सकते होते। बिना घूस लिए उत्तर प्रदेश जल निगम जारी करता मेरे स्वास्थ्य का प्रमाण-पत्र। मैं बार-बार ख़ाली होता और बार-बार भरा जाता। मुझसे कमाई होती और कुछ लोग मुझे आधुनिक भारत का मंदिर बताते। मैं सपाइयों-बसपाइयों के हत्थे न चढ़ा होता।

    मैं सिद्धांत होता और कुछ देर के लिए ही सही, मैं बहस के एजेंडे को पलट देता। फिर सारी बातचीत पानी पर होने लगती। नागरी प्रचारिणी सभा की तरह मेरा पटाक्षेप न हो गया होता। नेशनल हेराल्ड की तरह, मैं धीरे-धीरे ख़त्म होता और कुछ कम भ्रष्ट लोग ही मेरे आस-पास नज़र आ पाते। मेरे विनाश के अकल्पनीय नतीजे होते। मैं कुत्ते की मौत न मरा होता। मेरे उद्धार की कोशिशें होतीं और अंततः मैं एक प्रहसन बन गया होता। मैं बीमार हो पाता मेरे भी आँसू ख़त्म हुए होते मुझे भी जस्ट टियर्स की ज़रूरत होती।

    मैं बाँध नहीं हो पाया मेरी चिता पर मेले नहीं लगे मैं दवा की दुकान पर बैठने लगा तो मैं पेड़ के अजीब को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानने ही वाला था कि एक लड़की ने मुझसे पूछा कि हर पीछे आगे होता है और हर आगे पीछे होता है न? तो मैंने जवाब देने की बजाय सोचा कि जीवन कितना विनोद कुमार शुक्ल है फिर मैंने सोचा कि विनोद कुमार शुक्ल जा रहे होते तो यह कहने की जगह कि जा रहा हूँ, कहते कि आ रहा हूँ फिर मैंने सोचा कि अगर संभव हुआ तो मैं विनोद कुमार शुक्ल से वाक्य-विन्यास से ज़्यादा कुछ सीखूँगा फिर मैं आगे चला गया फिर मैंने पाया कि जीवन कितना कम विनोद कुमार शुक्ल है। 

    लुब्रिकेशन विनोद कुमार शुक्ल की तरह कम हो गया था। हर चीज़ दूसरी चीज़ से रगड़ खा रही थी। जर्जर पांडुलिपियाँ एक दूसरे से रगड़ खाकर टूट रही थीं। महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’ की पांडुलिपियों का बंटाधार हो गया। भारतेंदु की ‘कवितावर्धिनी सभा’ और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ की फ़ाइलें पहले ही ठिकाने लग गई थीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित ‘हिंदी शब्द सागर’ को ‘सभा’ के ठेकेदारों ने गैरक़ानूनी तरीक़े से, पैसा लेकर ‘डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन’, यूनाइटेड स्टेट्स की ‘साउथ एशियन डिक्शनरीज़’ नाम की वेबसाइट को बेच दिया है। यानी, अब वह शब्दसागर बनारस में नहीं है अमेरिका में है। लेकिन जैसा कि अमेरिकीकरण के हर आयाम के बारे में सच है, उसमें कुछ न कुछ मज़ा ज़रूर होता है, वह शब्दसागर भी इंटरनेट पर लगभग मुफ़्त देखा जा सकता है। ठीक है कि पिछले पचास सालों में यह डिक्शनरी एक बार भी अपडेट नहीं हुई है, होगी भी नहीं, लेकिन अब, कम-से-कम देखी तो जा सकती है। एक मज़ा और भी है। इस बार पहले और दूसरे के बीच तीसरा तत्त्व है। हमारे और शब्दसागर के बीच अमेरिका है। और क्या तो लुब्रिकेशन है।

    मैं पेड़ के अजीब को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानने ही वाला था कि एक लड़की ने मुझसे पूछा कि पब्लिक सेक्टर क्या होता है तो मुझे लगा कि यह खँडहर में जाने की तैयारी है। मैंने लड़की से कहा कि कल बताऊँगा। फिर मैं एक उजाड़ विषय का अध्यापक होना चाहने लगा। पेड़ के अजीब, बाँध और शब्दसागर की तरह मैं पब्लिक सेक्टर होना चाहने लगा। पब्लिक सेक्टर बनने के बाद ज़ोर-ज़ोर से बोलना पड़ता, फिर भी लोग सुन न पाते तो मैं और ज़ोर से बोलने की तैयारी करने लगा। यह तेज़ आवाज़ में अप्रिय बातें कहने का रिहर्सल था। फिर लड़की ने पूछा कि पहले सरकार ब्रेड क्यों बनाती थी और होटल क्यों चलाती थी तो मन हुआ कि कह दूँ कि अरुण शौरी उन्हें दलाली लेकर बेच सकें इसलिए, लेकिन तभी यह ख़याल आया कि सरकारी ब्रेड की मिठास लुब्रिकेशन की तरह ख़त्म है तो मैंने बुलंद आवाज़ में कहना शुरू किया कि तब तीसरी दुनिया के किसी भी देश में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन करने लायक़ कॉन्फ़्रेंस हॉल और शामिल देशों के प्रमुखों को टिकाने की जगह नहीं थी। आई.टी.डी.सी. का दिल्ली वाला होटल इसीलिए बना था। फिर यह जानते हुए कि कितना भी तेज़ बोलूँ, यह बात किसी को सुनाई नहीं देगी, मैंने कहना शुरू किया कि प्रतिकार के लिए कभी-कभी पाँच सितारा होटल भी बनाना पड़ता है। फिर मैंने पेड़ के अजीब की तरह कहा कि प्रतिकार भी करें हम रचना भी करें और बाँध की तरह कहा कि हमारी रचना हमारा प्रतिकार और शब्दसागर की तरह कहा कि प्रतिकार रचना होता ही है। 

    लुब्रिकेशन प्रतिकार की तरह कम हो गया था। मैं प्रतिकार की सही दिशा और उसका ठीक समय होना चाहने लगा। मैं प्रतिकार पढ़ना चाहने लगा तो मेरे अध्यापक ने मुझसे कहा कि पहले तुम्हें नक़ली प्रतिकार से चिढ़ना सीखना होगा। उन्होंने खाँसते-खाँसते कहा कि जिस बात से लोकतंत्र में तुम्हारा भरोसा कम होता हो वह अराजनीतिक बात है फिर उन्होंने कहा कि सारी बातें राजनीतिक बातें होनी चाहिए फिर उन्होंने कहा कि आंदोलन अगर लोकतंत्र को मज़बूत नहीं बनाता तो वह व्यक्तिवाद और पाखंड है फिर उन्होंने कहा कि अत्याचारी का कहना मत मानो। 

    मैं घूमने चला गया तो जो आदमी घूमने की जगह के बाहर संतरी बनकर खड़ा था उसने पूछा कि तुम किस नदी के हो। मैंने कहा कि मैं एक परिवार एक गाँव एक क़स्बे एक शहर एक राज्य का हूँ और यह पहली बार तुमसे पता चला कि मुझे किसी नदी का भी होना चाहिए उसने कहा कि तुम किसी न किसी नदी के होते ही हो क्योंकि हरेक किसी न किसी नदी का होता है। हम लोग किसी न किसी नदी के होते हैं और यह हमें कभी पता होता है, कभी नहीं पता होता। उसने आगे कहा कि यह न जानना कि हम किस नदी के हैं, नदी की हत्या करना है। मैंने कहना चाहा कि नदियाँ लुब्रिकेशन की तरह कम हो गई हैं, लेकिन संतरी से डर गया।

    तब से मैंने कुछ नहीं कहा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
    • प्रकाशन : सबद वेब पत्रिका

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए