मौत का एक दिन...

maut ka ek din

मृत्युंजय

मृत्युंजय

मौत का एक दिन...

मृत्युंजय

और अधिकमृत्युंजय

     

    एक

    कोई बखत एक झिलंगा शाल लपेट चंद्रमा बराबर बिंदी लगा 
    लथपथ अपने घर की ओर लौटने लगी मौत
    पेड़ों की फुनगियों से उतर चुकी थी शाम 
    परिंदे घोंसलों में छुपे बच्चों को चुगाने लगे थे 
    पृथ्वी कुहरे की चादर धीरे-धीरे ओढ़ रही थी सोने के पहले
    अलाव के गिर्द बैठे थे दो दरख़्त, तीन बच्चे और एक चिबिल्ली भाषा

    मौत ठिठक कर खड़ी हो गई
    छोटी-छोटी लपटों के नाच की परछाइयाँ थीं
    उनकी आँखों में
    अजब नज़ाकत से
    अपनी छटपटाहट को छुपाया मौत ने

    घर में घुसने से पहले
    दिन भर की हरारत से थकी ने
    सखी पृथ्वी को चूमा और विदा ली
    उसकी डबडबाई आँखों में झिलमिल कर रहा था प्यार

    बखत हाकिम था, भर्ता-कर्ता, भीषण बलवान, अंतर्यामी
    चप्पे-चप्पे पर जासूस थे उसके
    गहरी नज़रों से घूर कर देखा, रपटों से मिलाया
    और भाँप गया
    बेहद नशीली मानुष गंध छुपी नहीं

    मौत के पास न खोने को कुछ था न रोने को
    उसने पहली बार मालिक की आँखों में झाँका
    और हँसी
    पहली बार

    पहली बार वक़्त-ए-हाकिम ने मौत की हत्या की चाकुओं से गोदकर
    और आख़िरी बार मौत अलाव के गिर्द जा बैठी।  

    दो

    मौत की आँखों में नीद के चहबच्चे थे
    शिराओं के अंत में थकन भरे बुलबुले
    जतन से कसी बँधी चोटी की गाँठे
    खुली-खुली जाती थीं
    घुटनों पर ठुड्ढी टिकाए हुए
    बेहद उदास और ख़ूबसूरत लग रही थी मौत

    दुपहर का खाना खा
    ऊँघ रही थी पृथ्वी
    हल्के-हल्के झूम रहे थे पेड़
    शीरीं हवा के संग गलबहियाँ डाल
    बादलों की पीठ पर
    सुस्ता रहा था सूरज

    इंतज़ार करते-करते थक चुकी थी मौत
    अकेलेपन के जाल में छटपटाती
    काम के बोझ से लदी-फँदी
    पूरी कायनात में
    न कोई घोड़ा मिला उसे
    न राजकुमार

    थकी-हारी मौत
    किसी सखी की गोद में
    सर टिका सो ही गई होती
    गर नहीं आता टेलीफ़ोन
    ह्वाइट हाउस से...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मृत्युंजय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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