अजनबी शहर में

ajnabi shahr mein

संजय कुंदन

संजय कुंदन

अजनबी शहर में

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    रोचक तथ्य

    इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    रात भर मेरे सिरहाने

    पड़ा रहा एक लोटा जल

    रात भर मैं एक नदी के सपने में

    पत्तियों की तरह टूट-टूटकर गिरा

    मेरे जागने से पहले ही

    मेरा दुःख अपने कपड़े बदल चुका था

    मैंने देखा उसे तैयार तत्पर

    हमेशा की तरह

    इस अजनबी शहर में चलने को

    मुझसे आगे

    मेरे और इस अजनबी शहर के बीच

    मेरी स्मृति का सोता बहता है

    मैं आज रात सोया

    सोते के इस ओर

    यह सोचकर कि उठूँगा

    सोते के उस ओर

    शहर की तरफ़

    पर बाज़ार पहुँचने की जल्दी में

    समझ पाया

    कि किस ओर उठा हूँ

    मुझे बाज़ार के बारे में सोचना था

    उससे भी ज़्यादा

    रुपए के बारे में

    जिसकी उँगली पकड़

    मुझे बाज़ार पहुँचना था

    मुझे क्या पता था

    कि बाज़ार पहुँचते-पहुँचते

    रुपया इतना बौना हो जाएगा

    कि झुककर भी उठा सकूँगा उसे

    तो हुआ ये कि

    मैं भागता हुआ बाज़ार गया

    और ख़ाली हाथ लौट आया

    मेरे पहुँचने से पहले ही

    मेरा दुःख पहुँच चुका था

    मेरे घर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्वर प्रदेश (पृष्ठ 213)
    • संपादक : अन्विता अब्बी
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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