यह अविरत उथल-पुथल

ye awirat uthal puthal

तुलसी परब

तुलसी परब

यह अविरत उथल-पुथल

तुलसी परब

और अधिकतुलसी परब

    यह अविरत उथल-पुथल, यह सामुद्र धुनि के

    आकार की मंद हलचल

    कई वर्षों की अवधि के बाद की वापसी का उत्थान

    मैं देखता हूँ मेरे सामने टूटे-फूटे पुरातन रिश्तों को

    संगठनों को भीतर से छेदने वाला स्वार्थान्ध चक्कू

    उसकी मोहमयी मियान जंग खाई हुई

    और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसे सँभालने वाला कह रहा है साफ़-साफ़

    उसकी फैली हुई वासनाएँ, उसकी शोषण-धमनियाँ

    फैली हुई ज़रूरतमंद जहाँ तक पहुँची हुई हैं

    वहाँ तक नाचते-नाचते जन-आकांक्षाओं को कुचलता हुआ

    वह कहता है, वह ढहता हुआ, ढहने को आया हुआ

    प्लास्टिक का पर-प्रकाशमान सूर्य, भीतर से खोखला बनाया गया

    यह विपर्यास को आमंत्रित करता दानशील साम्राज्य

    वह कहता है, मैं हिस्सा माँग रहा हूँ और

    यह हिस्सा मुझे मिलना ही चाहिए

    मैं जब नंगा होने को कह रहा हूँ तब वीनस को

    नंगा होना ही चाहिए वह कहता है, मेरे हाथ लगने पर

    कवितार्थ पर का झिलमिला वस्त्र हटना ही चाहिए

    और गुलाब नहीं उगने लगे हैं अब तक भी डंठल से काले

    और पिकासो का गुएर्निका नहीं हुआ है बूढ़ा

    और वियतनाम के आँसू और ख़ून अभी-अभी खिलने लगे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 75)
    • संपादक : चंद्रकांत पाटील
    • रचनाकार : तुलसी परब
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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