संहिता

sanhita

विंदा करंदीकर

और अधिकविंदा करंदीकर

    1

    मालूम नहीं था मुझे कि दिशाएँ कितनी हैं; तभी से

    चैत्र-पल्लव की भाँति वे स्मृतियाँ झिलमिलाती रही हैं।

    ख़ून के घड़ियाल बनकर कभी पैर खींच ले जाती हैं।

    कभी उनमें आसमान से लटक आने वाले खजोहरे की

    खुजली होती है। कभी उनका एक फंदा बिलबिलाता रहता है

    लेअकून की पसलियों के चारों ओर। कभी उन्हीं के बनते हैं क़ैदख़ाने, बनते हैं बारुदख़ाने

    लेकिन फिर भी अँधेरे के विशाल भाल पर तुम्हारे भौंह की

    ऊँची कमान खड़ी है... उसके नीचे की यह राह कहाँ जाती है?

    दिशाएँ कितनी यह अभी भी नहीं समझा मैंने। लेकिन फिर भी

    हर दिशा में डूबने के लिए पर्याप्त जल है, और डूबते हुए

    धन्यता का एहसास हो इतना गहरा कहीं भी नहीं, अन्यथा पार के

    अज्ञात से एक काला हाथ नहीं उठता ऊपर

    हिलाते हुए अँगूठा... लेकिन मैं समुद्र खोदने वाला हूँ और

    तुम्हारी अंजुरी से भरने वाला हूँ, क्योंकि अभी भी तुम्हारी भौंह की ऊँची कमान खड़ी है।

    2

    यह अनुभव का अंजन आँख में जज़्ब कर... फिर देखो :

    सामने वाली पहाड़ी पर रेंगती जाने वाली सर्पिल रेखाएँ

    पकड़ रखो। बहते पानी पर लकदक करने वाले कलाबत्तु,

    चहकने वाली किरणों के; कस कर पकड़ो। हरे घने

    पत्तों की चोंच में अंगुली डाल कर दंशित हो जाओ। हाथ की रेखाएँ

    दूर्वाओं पर फैलाकर अपनी क़िस्मत की पूजा बाँधो, गीली बालू में

    धँस जाओ, धँस जाओ। आसमान पर फेंकी आँखें

    फिर एक बार लोक लो। मतलई के साथ बहती जाओ, नहाती जाओ।

    और राहों पर अभागे जख़्मों को सूँघकर आई हिचकी को... दबाओ।

    इसके इस पार रेती है, और उस पार है अँधेरा

    इस तार पर से संतुलन संभालते संभलकर चलना...आना हो

    तो साड़ी बदल कर जल्दी चलो... ज़ीने पर से पाँवों के बजने के पहले

    मेरी जेब तुमने अभी क्यों नहीं सिली? (शायद रखी हो

    उतनी ही राह अपने को भागने के लिए!)... ज़ीने पर से पाँवों के बजने के पहले।

    3

    अपने वंशवृक्ष के निगूढ़ गीतों को मुझे एक बार समझाकर बताना

    अहिल्या की शिला बन गई... इतनी तृप्ति उसे कैसे मिली?

    प्रकाश की गाँठ खुलते समय इंद्र के शरीर पर उगी आँखें

    कैसे चमकी? और धर्म को सहने वाली पांचाली का योग;

    पतिव्रता गांधारी की समझदार आँखों द्वारा पहचाना डर, बंधा हुआ;

    सीता लक्ष्मण में घुला हुआ रामायण, उनकी भी समझ के परे का;

    अपने वंशवृक्ष के इन निगूढ़ गीतों को मुझे एक बार समझा कर बताना;

    प्रकाश देखकर अंधा बन जाने को भी अब मैं प्रतिश्रुत हूँ।

    मेरी आँख पर बालों को फैलाकर वह प्रकाश मत छुपाना,

    वह उत्कंठा अभी मेरी है; यह इतना ही मेरा है।

    रामायण तुम्हारा है; और महाभारत भी तुम्हारा ही है।

    यह इतना ही मेरा है; बिलबिलाने वाली वासना पर के

    प्रकाश का जहरीला फन मुझे एक बार देखना ही होगा।

    अहिल्या की शिला को पैर लगाने वाले हर राम के पत्थर होने के पहले।

    4

    एक रास रचकर छिपाया है मैंने अपने को; उस रास में

    फ़्रांस के 'गुह्य' चित्र, पेकिंग के आदिमानव की हँसने वाली दुमकी हड्डी,

    प्लांक का सिद्धांत, बुद्ध का दाँत, नरमेध का संस्कारशास्त्र,

    जगन्नाथ का रथोत्सव; हैमलेट के महावाक्य; एलिफेंटा की त्रिमूर्ति;

    नागासाकी का नग्नांध; फादर डेमायन का महादिव्य;

    अंतिम डायनोसोर की छटपटाहट; हिमपर्व का जल-तांडव;

    प्रवाल द्वीप की चांदनी में नग्ननृत्य... और प्रस्थानत्रयी;

    इनकी छायाएँ हिलमिल गई हैं। मैंने अपने को छिपाया है क्वारेपन से

    हँसो मत; एक रास रचकर तुमने भी अपने को छिपाया है;

    पालने पर बांधी स्वप्नों की चहक चिड़ियाँ; शाम की राम रक्षा;

    अँगीठी के अँगार पर फुलाया हलवा; भिगोयी भैयादूज

    गठरी में छिपाई हुई; बचे हुए आटे की नन्ही-सी चाँद रोटी;

    हस्तिदंती कंघी; और सोनतार में गूंथा हुआ मंगल-सूत्र।

    राधे! इस रासक्रीड़ा की मुरली कहाँ है? मुरली कहाँ है?

    5

    जब खुल गया विश्वरूप का जबड़ा जिवा-विहीन,

    और दाँत लगे करकराने; जब हुआ द्विखंडित जरासंध जैसा;

    जब वस्तुओं के बने आईने, और उलट गए मेरे ही प्रतिबिंब

    मेरी ही आत्मा पर... तब रसोईघर के खंभे पर हाथ रखकर

    तुमने पृथ्वी को आधार दिया; और दुनिया को बेचे हुए हाथों को

    फिर एक बार लौटा लाई मुक्त कर। तब तुमने कहा,

    भविष्य के लिए दी हुई भेंट भविष्य को पहुँचा दो

    खंभे पर झुकी हुई वह आकाशवाणी मैं अब तक नहीं भूला।

    तुम्हें देहरी की शपथ दिलाकर मैंने निहोरा (भूली नहीं होंगी)

    मेरी रीढ़ पर भविष्य का उग्र भार क्यों रखती हो?

    यह चित्र देखो और यह विचित्र देखो, यथार्थ,

    फटे आसमान को टाँका डालने वाला बिजली का सूजा कहाँ है?

    लेकिन हाथ के उधेड़े झंगूले को सीते हुए तुमने कहा,

    “तुम आज थके-मांदे लग रहे हो; चलो हम घूमने चलें... पूरब को।

    6

    एक बार आसमान नन्हा-सा धूप-टुकड़ा बन तुम्हारे पैरों के पास

    गिर गया और काल का प्रारंभ हो गया। तुम्हारी हथेली की

    ललौंही रेखाएँ मेरी कलाई पर उगने लगी और दिशाओं का

    प्रारंभ हुआ। क्यों? किसलिए? इसे समझते हुए,

    मस्ती में उछाला हुआ प्रवाही प्रारंभ। उस प्रारंभ में ही मैंने महसूसा

    अंत का आकर्षण, क्षितिजों को जोड़ने वाला यथार्थ अस्तित्व।

    और रास्तों के दोनों ओर स्वप्नों को उछालते हुए

    गया झपट्टा मारते हुए भविष्य की दिशा में, लेकर के पहले ही अटल का दर्शन।

    तुम 'स' बंध-सी रहीं पीछे; नहीं झपटी यात्रा की धार में

    मुझे खटका तुम्हारा सुस्त, सुखासक्त, स्वास्थ्य के लिए लालायित होना

    और स्वप्नों की फ़िजूलख़र्ची ख़त्म होने पर रीते हाथों से आँखें बंद करते हुए

    बरगलाया कुछ भी। तब धीमे क़दम रखती हुई तुम आगे आई,

    और बोली, “तुम्हारे उछाले उन स्वप्नों में से ये अँकुराने वाले स्वप्न

    मैंने आँचल में इकट्ठा किए हैं; उन्हें अपने समर्थ हाथों का आधार दो।”

    7

    घुप्प अँधेरे में ओतप्रोत स्तनों की धमकी देकर समूचे जीवन को

    उजला कर देने की तुम्हारी शक्ति का मैंने अनुभव किया है;

    और पंखुड़ियों में से खिलता जाने वाला मौनमत्त लास्य,

    उसकी शक्ति को मैंने महसूसा है; कटसरैया के फूलों को मसलने वाला,

    मरोड़े हुए होठों से ऐंठने वाला ग़ुस्सा, हाथ बाँधने वाला;

    आकारवश इंद्रियों की दुराराध्य बंदिश; अँधेरे पर टपकने वाली वासना की ठुमरी;

    —इन सब की अपार शक्ति मेरे प्राणों पर अरराकर गिर पड़ी है;

    गिर गया हूँ... लेकिन लोकने वाले हाथ भी तुम्हारे ही हैं, झुटपुटे के।

    इसीलिए तो मैं भयंकर को आँख मारकर फिर वापस

    आता हूँ तुम्हारे पास; जख़्मों के मानचिह्न धारण कर अकड़ते हुए फिर वापस

    तुम्हारे पास ही आता हूँ। मैंने अनामिक को ताक़ीद की है,

    “तुम बीच में आना; ‘जीवन से यह मेरा प्रेम-कलह है।’

    जिसने अस्तित्व को भोगा है वह निराकार पर रीझेगा नहीं।”

    गिर पड़ा हूँ... लेकिन लोकने वाले हाथ भी तुम्हारे ही हैं, झुटपुटे के।

    8

    वह हमेशा ही कोने के पास खड़ा रहता है; दुख के पीछे छिपा रहता है।

    वह मुझसे भी मिला था... काशी से लौटने पर

    रास्ते के कोने के पास एक पैर पर तौलते हुए खड़ा था,

    ‘हँसने वाला’ कोढ़ी, वह मुझसे भी मिला था... अजमेर के पास

    शंकर के मंदिर के पीछे, अपनी तराशी हुई मूर्ति के सीने से

    कान लगाकर हृदय की धड़कनें सुन रहा था; चिंदी लगाकर

    जी रहा था, शिल्पकार... वह मुझसे भी मिला था...

    अंधा होकर पीस रहा था... भूखा होकर बो रहा था, मुँह उजाले में

    वह तुमसे भी मिला था, 'नंदू' के जन्म के समय...। बिल्कुल झुटपुटे में

    लेकिन तुमने उसे पहचाना नहीं, यह बहुत अच्छा किया।

    कैसे गर्दन नीचे किए सीधा-सादा-सा निकल गया

    फिर भी पगचिह्न अंकित थे; पत्थर में गड़ गए थे।

    लेकिन तुमने उसे पहचाना नहीं, यह बहुत अच्छा किया!

    उसकी पहचान देने वाली जलती महामुद्राओं से तुम्हारे नन्हे-मुन्ने की सुरक्षा हो।

    9

    ...ब्रह्मदेवता के मंदिर के सामने वाली वह घुन्नी चट्टान तुम्हें याद है?

    वामकुक्षि करने वाली। मेरे बचपन में उसके शरीर पर

    एक जूही की लता बावरी-सी विचरी थी...“तुम स्टोव में इतना तेल क्यों भरते हो?”

    परसु चाचा की अंगुलियाँ झड़ने पर ऐन मध्य रात को दादाजी ने उन्हें

    दही-भात खिलाया, और बाद में एक डोला पहाड़ के आधार से

    'भेंडावत' की ओर सरकने लगा था...“यह हाथ साफ़ करने का कपड़ा यहाँ

    कील पर टाँगने के लिए कितनी बार तुमसे कहा था?

    ...ज्ञानेश्वर की समाधि का द्वार बंद करते समय... “द्वार खुला ही है; अंदर आइए।

    जो फैली बाहों में नहीं आता वह चुटकी में पकड़ा जा सकता है,

    यह तुमने मुझे दिखाया है। पृथ्वी पर पैर रोपकर

    तुम ऐसे ही खड़ी रहो। आकाश के 'हुँकार' को तुम झुनझुना

    बजाकर दिखाओ... दो मनुष्यों की आत्माओं में एक बड़ी दीवार होती है

    अपनी ओर के उन भित्तिचित्रों की रक्षा करो; और मृग के तूफ़ान में

    उखड़ जाने वाले कल के अंकुरों को अपनी साँसों का आधार दो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : विंदा करंदीकर
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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