मक्षिकामंत्र

makshikamantr

रति सक्सेना

रति सक्सेना

मक्षिकामंत्र

रति सक्सेना

और अधिकरति सक्सेना

    मक्खी

    चाहे हो

    राजा की नाक पर

    मिठाई की तश्तरी पर

    दुपहरी में ऊँघते कमरे में

    या फिर

    चाय के प्याले में

    हर कोई निकाल फेंकने की

    फ़िराक़ में रहता है

    मक्खी कभी

    प्यारी नहीं लगती

    परियों से नन्हे पंखों के बावजूद

    कलियों-सी चटखती आँखों के बावजूद

    बावजूद परा ज्ञान की

    व्याख्याता होने के

    उसे मालूम है

    भक्ष्य पर कैसे बैठा जाए

    परों की रेशमीयत को सिकुड़ने से

    बचाते हुए

    बंदर की तलवार वार से

    हटते हुए

    उड़ते हुए फुरते हुए

    फुर्र होते हुए

    र्निभीक होती है वह

    शेर के थोबड़े पर मँडराती हुई

    गाय की पूँछ चँवर से खेलती हुई

    आम प्रजा से कहीं अलग हटते हुए

    मक्खी मक्खी ही है

    इंसान या परिंदा नहीं

    जानवर या वनस्पति नहीं

    फँस जाती है फिर भी कभी

    मिठास के जाल में

    चिपके परों में

    चाँदी के तारों को लिए

    फड़फड़ाती,

    उठती, गिरती

    फिर उठती।

    छटपटाती

    टूटती

    मिठास बनती है

    चिपकन, उठन

    टूटन, गिरन

    मधुर मिलन

    में प्राप्त दर्शन...

    कौन जाने शंकराचार्य ने

    मक्खी को देखा

    या मक्खी ने

    अद्वैत सीखा...

    स्रोत :
    • रचनाकार : रति सक्सेना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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