मकड़ी का सौंदर्यवाद

makDi ka saundarywad

रति सक्सेना

रति सक्सेना

मकड़ी का सौंदर्यवाद

रति सक्सेना

और अधिकरति सक्सेना

    मकड़ी के हर जाल में

    कोई कविता होती है

    लार से निकला एक शब्द

    दूसरे से उतनी दूरी रखता है

    जितनी कि भावों के कीड़ों को

    फाँसने के लिए ज़रूरी है

    उनमें उतनी ही कसावट होती है

    जितनी कि छंद की लय के लिए होती है

    जाला यदि पेड़ पर हो तो

    सवेरे की धूप के शीशे में ओस की बूँदें

    कालिदास की उपमा-सी दमकती हैं

    कमरों के कोनों में लटके जाले

    उत्तराधुनिकता जैसे बेरौनक़ होते हुए भी

    यथार्थ के कीड़ों-मकौड़ों को निगलते हैं

    मकड़ी के सौंदर्य मापदंड भी अलग होते हैं

    जाल में फँसे काले किंतु माँसल पतंगे

    स्वाद को ख़ूबसूरती देते हैं

    तितली के पंख

    बदसूरत स्वाद देते हुए

    नोच फेंकने को बाध्य करते हैं

    मकड़ी का सौंदर्यवाद

    चुनौती है आदमी के काव्यशास्त्र के लिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रति सक्सेना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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