मैं इतना अधिक क्यों!

main itna adhik kyon!

नवीन सागर

नवीन सागर

मैं इतना अधिक क्यों!

नवीन सागर

और अधिकनवीन सागर

    अपनी परछाईं पर झुका हुआ हूँ परछाईं-सा

    उतना बाहर नहीं हूँ

    बाहर जितना अपने बाहर है

    उतना ख़ाली हूँ बाहर जितना भीतर ख़ाली है

    जो कुछ भी गया है ख़ाली करके

    बाहर के बाहर कहीं नहीं है

    इस तरह एक निस्सीम सीमा के बाहर

    सब कुछ का कुछ होना एक सन्नाटा है

    जिसमें डूबी ध्वनि

    अंधकार में फैलते हुए अंधकार का फैलाव है

    उसी में फैलता हुआ मैं

    अपनी परछाईं पर झुकी अपनी पीठ से टिका

    घुटनों में सिर दिए

    समझ नहीं पा रहा हूँ प्रयोजन

    सारा अस्तित्व मेरे ऊपर झर रहा है

    मुझमें भीतर अतल में विलीन होता हुआ

    मैं एक पागल शून्य से बना हुआ ख़ामोश

    कोलाहल हूँ

    मेरे आस-पास और हर कहीं दूर

    दुनिया-जहान एक झूठी कहानी का दुहराव है

    एक सपना टूट कर

    नींद के तलहीन मैदान की समतल चारपाई के

    अँधेरे पर विक्षत जीवन-सा बिखरा है

    उसी में से बीनकर इच्छाएँ

    अपनी फटी जेबों में ठूँसकर जाना चाहता हूँ

    हर दिशा में

    जाने की बंद हर दिशा का दरवाज़ा मैं हूँ

    हर दस्तक मैं हूँ

    अकेला मैं हूँ अपने सिवा

    यह मैं कौन हूँ जो मैं नहीं हूँ

    यह किसकी याद है जो इस होने के पार

    मेरे होने की तरह भूली हुई काल के निर्जन गड्ढे में

    पड़ी है!

    अपने बारे में इतना गड़बड़ा गया हूँ

    कि बहुत-सारे बेमानी शब्दों का जाल बुनती हुई मकड़ी

    मैं हूँ एक खंडहर के कोने में

    दुनिया-जहान की याद करता हूँ

    तो बार-बार मैं सहसा सामने जाता हूँ

    अपने से टकरा कर चूर-चूर हो जाता कभी

    तो कभी यह सब होता प्रलाप!

    मैं किसी तरह अपने बाहर और भीतर के अलावा

    अपने होने का विचार करता हूँ

    और भूल जाता हूँ बाहर-भीतर आने—

    जाने में अपना विचार

    क्यों जाने मैं इतना अधिक हूँ अपने लिए

    कि और अधिक मरने से डरता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जब ख़ुद नहीं था (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : नवीन सागर
    • प्रकाशन : कवि प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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