पागल समय

pagal samay

नीलेश रघुवंशी

नीलेश रघुवंशी

पागल समय

नीलेश रघुवंशी

और अधिकनीलेश रघुवंशी

    एक कुबड़ी लगातार देती है गाली

    ऐसी गालियाँ जिन्हें सुनते ही लोग बंद कर लेते हैं घरों के दरवाज़े

    झाडू-पोंछा करते-करते दिमाग़ फिर गया कुबड़ी का

    नहीं जीजी ऐसी बात नहीं है बहुत बुरा हुआ बिचारी के साथ

    सुनो दीवारों के भी होते हैं कान कह देखती है चारों ओर

    भरी दुपहरी में सपने देखे इसने दिमाग़ तो फिरना ही था

    छली गई बेचारी प्रेम में धोखा खा गई

    नासमिटी बर्तन धोते-धोते चली थी रानी बनने

    तभी तो कुबड़ी

    हाथ में डिब्बा और बग़ल में बोरा दबाए

    उसी घर के चक्कर काटती है आधी रात को

    धीरे-धीरे जाती है शरमाते हुए चौखट तक

    फिर अचानक पीटती है सिर ज़ोर-ज़ोर से

    साहब को देखकर करती है कुबड़ी पुच्च-पुच्च कभी बकती है गालियाँ

    कभी-कभी तो धोती को घुटनों तक चढ़ा कूदती है घोड़ी की तरह

    ‘और...ऽ जा का कोई पागल है सन्ना रही है राँड’

    मुँह बिचकाती कहती है तीसरी औरत

    एक जवान साँवली-सी लड़की हँसती-मुस्कुराती

    झिलमिलाते हैं उसके सफ़ेद दाँत

    मुहल्ले की औरतें करती हैं उससे बातें हज़ार

    रखती हैं ख़याल उसके खाने-पीने का,

    तीज-त्यौहार पर बनी खीर-पूड़ी में रहता है हिस्सा बिन्नी का भी

    आओ बिन्नी आओ

    कहाँ थी कल बड़ी चमक रही है आज बिन्नो रानी,

    बताती है बिन्नी जीप में बैठकर गई थी कल दूर बहुत दूर

    आँखें फटी रह जाती हैं औरतों की देखती हैं

    सबकी सब हैरत से बिन्नी को

    कितै-कितै कहाँ गई थी आग लगी कौन के साथ गई थी एँ

    बता-बता झपटती हैं सब एक साथ

    कुछ नहीं कहती बिन्नी हँसती है ज़ोर से

    दिखाती है रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और

    हँसते-हँसते पार कर जाती है गली...

    आगलगी असल बात हमेशा दबा जाती है

    जाने कहाँ-कहाँ मुँह काला करती फिरती है चुडै़ल

    गली में नहीं घुसने देना चाहिए इसे

    पागल है तो का मतलब जो थोड़ी ना है कि

    दिन-रात गुलछर्रे उड़ाती फिरे

    भुनभुनाती कुछ देर चुप होती हैं औरतें

    फिर जी भर कोसती हैं उन मुस्टंडों को

    जो आए दिन लार टपकाए फिरते हैं बिन्नी के पीछे-पीछे

    ठठरी बँधे आधी रात को मरेंगे सबके सब

    पैदा होते ही साँप ने क्यों नहीं डस लिया इन्हें

    बालों में गजरा लगाए पागल बिन्नी हँस रही है

    गली के मुहाने पर खड़े-खड़े

    एक बूढ़ी औरत लगाती है फटकार बिन्नी

    गजरा निकाल और चल फूट

    मरती भी तो नहीं है आग लगी कि चैन मिले मोहल्ले को

    बड़बड़ाती है बूढ़ी औरत

    उसकी आवाज़ का दुख होता है तार-तार

    तैरता है जिसमें बचपन बिन्नी का

    आग लगी मौड़ी की क़िस्मत अच्छी होती तो

    काहे भरी दुपहरी में माँ-बाप छोड़ जाते

    नाते-रिश्तेदारों के यहाँ रही कुछ दिन फिर जब आई तो ऐसे हाल में

    मरी आग लगी को भी तो मिलता है चैन इसी मोहल्ले में

    कुड़कुड़ा रही है बूढ़ी औरत

    बालों में गजरा लगाए गली के मुहाने पर खड़ी हो गा रही है बिन्नी

    मैं तो प्रेम-दीवानी मेरो दर्द जाने कोय

    सूनी रात में दूर-दूर तक गूँजती है उसकी आवाज़

    बजाती है बाँसुरी और छेड़ती है राग बिन्नी

    बिन्नी के इस गीत में छिपी है मुहल्ले की औरतों की टीस

    और अधूरी इच्छाएँ

    सुनते ही जिसे ठहर जाती हैं सब जहाँ की तहाँ

    जब असहनीय हो जाती है बिन्नी की टेर

    तब कोई एक आकर झिड़कती है बिन्नी को रुँधे गले से

    बिन्नी पागल नहीं है जिज्जी गुलछर्रे उड़ाने के लिए रचती है स्वाँग

    देखो कैसी बन सँवरकर रहती है

    ये अक्कल भला इसे कहाँ से आती है

    मुफ़्त का खा-खा के गर्रा रही है बिन्नी

    इसकी छाँह भी मोड़ियों पर नहीं पड़ने देनी चाहिए

    बिन्नी बिन्नी

    इते-उते मत फिरू करे बिन्ना पुचकारती है बूढ़ी औरत

    फफक-फफक कर रोती है बिन्नी

    क्यों रोती है बिन्नी मुनीमन बाई के कंधे से लग

    चलो-चलो सब चलो कोई छूट जाए

    छुक-छुक-छुक चली रेलगाड़ी

    टिकिट-टिकिट-टिकिट नहीं-नहीं कोई टिकिट नहीं

    जाओ जाओ सब जाओ

    दादा कक्का बाई अम्मा भैया बाबूजी सब जाओ

    सबके लिए एक जैसी ट्रेन कोई क्लास नहीं सब फ़र्स्ट क्लास

    छुक-छुक-छुक चल मेरे सपनों की गाड़ी

    छुक-छुक-छुक चल मेरी रेलगाड़ी

    चौराहे पर कचहरी के ऐन सामने सीटी बजाती है पागल

    खदेड़ते हैं लोग उसे एक-सी गाड़ी वो भी कचहरी के सामने

    देखो-देखो वो कंस आया देखा-देखो कितने सारे कंस

    कचहरी के गोल चक्कर काटता फिरता है पागल

    शरीर से मिट्टी लपेटे फटे चिथड़ों में एक आदमी नंग-धड़ंग

    चाय पीते लोगों को देखता है एकटक और झपटता है खाली गिलास पर

    उसका ख़ाली गिलास को उठाना और झोले में डालना

    शक के दायरे को बढ़ाता है चौराहे पर खड़े लोगों के बीच

    किसी बड़े की तलाश में है ये

    फिंगर प्रिंट लेकर धर दबोचेगा देखना एक दिन

    आख़िर क्यों एक के बाद एक सारे पागल आते हैं इसी चौराहे पर

    ज़रा सोचो

    नुक्कड़ पर बनी चाह की दुकान दिन दिन बढ़ती भीड़

    आस-पास बड़े-बड़े दफ़्तर और एक से एक आलीशान घर

    ये पागल नहीं हैं भई ख़ुफ़िया तंत्र के लोग हैं ये

    समझो बात को चाय की दुकान पर ज़्यादा फकर-फकर नहीं

    आस-पास का ख़याल भी रखना चाहिए दबी जुबान में समझाता है समझदार

    अरे ठीक है

    जिसकी दाल काली हो वह डरे हमें क्या लेना एक देना दो

    क्या बड़े बाबू खाओगे अकेले-अकेले और डराओगे सबको

    चल-चल यार ज़रा-सी बात पर गरम हो जाता है तू भी

    गरियाते हैं सब पागल को चल फूट यहाँ से दुबारा मत दिखाई देना

    हमारे बीच का एका बिगाड़ता है ये तो हम सबको फोड़ देगा एक दिन

    एक आदमी चबूतरे पर खड़े होकर पेड़ की डाल को माइक बनाए

    भाइयों और बहनों अब तो जाग जाओ

    देखो घना अँधेरा घिर आया है

    देश के लिए कुछ करना चाहिए

    देखो वो भाग रहा है

    पकड़कर ले जा रहा है कोई उसे

    लगाता है ज़ोर से छलाँग और गिरता है औंधे मुँह

    कुहनी और मुँह से पोंछता ख़ून

    ध्यानमग्न हो बैठ जाता है चबूतरे पर

    भौंकते हैं कुत्ते

    दौड़ता है पागल कुत्तों के पीछे

    लोगों की हँसी दूर तक करती है उसका पीछा

    क्यों हँसते हैं लोग इतना ज़्यादा पागलों को देख

    क्या ढूँढ़ते रहते हैं पागल पटरियों पर

    क्यों पीछा करते हैं जाती हुई ट्रेन का

    कितनी बड़ी पहेली है पागलों का घनी बस्ती में उजाले के बीच घूमना

    उससे बड़ी पहेली कि भागते-फिरते हैं अँधेरे से दूर पागल

    ऐसा क्या खो गया जो ये बौराए और बौराई इनके पीछे भीड़

    कितना पागल समय है ये

    घूम रहे हैं जिसमें सब बौराए-बौराए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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