चेहरा

chehra

रघुवीर सहाय

और अधिकरघुवीर सहाय

    चेहरा कितनी विकट चीज़ है

    जैसे-जैसे उम्र गुज़रती है वह या तो

    एक दोस्त होता जाता है या तो दुश्मन

    देखो सब चेहरों को देखो

    पहली बार जिन्हें देखा है

    उन पर नज़र गड़ाकर देखो

    तुमको ख़बर मिलेगी उनसे

    अख़बारों से नहीं मिलेगी

    सब जाने-पहचाने चेहरे

    जाने कितनी जल्दी में हैं

    कतराते हैं मुड़ जाते हैं

    नौजवान हँसता है कहकर

    ठीक सामने ‘तो मेरा क्या’

    लोग देखते खड़े रहे सब

    पहने सुंदर सुथरे चेहरे

    हँस करके पूछने लगे फिर

    अगर वही हो तुम जिससे तुम

    लड़ते हो तो लड़ते क्यों हो

    बोले थे अभी आप जाने क्या

    सबको सुनाई दिया हा हा हा

    आपके विचार में तर्क है धमकी है

    आप जासूस हैं आप हैं डरावने

    आप विश्वास से देख रहे सामने

    झुर्रियाँ डरा हुआ दुबला-साँवला चेहरा

    बस से उतरी हुई भीड़ में एक-एक कर देखा वह नहीं था

    पिछली बार बहुत देर पहले उसे अच्छी तरह देखा था

    रोज़ आते-जाते हैं बस में लोग एक दिन ख़त्म हो जाते हैं

    या कि ख़त्म नहीं होते चुपचाप

    मरने के लिए कहीं दुबक जाते हैं

    एकाएक चौंककर डूबे किताब में आदमी ने फ़ोन किया

    गणतंत्र दिवस को परेड का मेरा पास कहाँ है

    वह पढ़ा-लिखा पुरुष पुलिस को देखने

    जाएगा जिससे उसे राजपुरुष देख लें

    दफ़्तर में दल के गया वे जमे बैठे थे

    तने हुए जितना वे तन सकते थे मोटे शरीर

    उनके तले शक्ति थी दबी हुई जनता की

    उस शक्ति की पीड़ा चेहरे पर थी

    जब वे एक लंबी पाद पादे राहत मिली

    खेत में सजी हुई क्यारियाँ थीं

    उनमें पानी भरा था

    मैंने हाथ से उन्हें पटीला

    अँखुए झाँकते दिखाई दिए

    सपना था यह

    धीरे से बदल गया

    अब मुझे याद नहीं शायद मेरी बीवी थी

    खुले बाल दूर देखती हुई दौड़ी आती थी

    दौड़ता आया लड़का हाँफता हाथ में आप इसे

    पीछे भूल गए थे मुझसे कहा

    दौड़ने में उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया था

    आँखें फट रही थीं क्योंकि उसके तन में

    काफ़ी ख़ून नहीं था

    जो शरीर सूखे मरे पाए गए

    उनमें जाने कितने कलाकारों के थे

    उनकी कोई रचना छपी नहीं थी बल्कि

    उनकी कोई रचना हुई नहीं थी क्योंकि

    अभी उन्हें करनी थी

    दो हज़ार वर्ष के अत्याचार के नीचे से उठकर

    उन्हें एक दिन करनी थी रचना

    इसके पहले ही वे मारे गए

    इस वर्ष पिछले वर्ष की तरह

    सभा में बैठा था हिंदी का लेखक

    राजा ने कहा कि मेरे भाषण के बाद

    इसका कोई हिंदी में उल्था कर देगा

    लेखक अपनी जगह बैठा डरने लगा

    अनुवाद करने को उसे कहा जाएगा

    क्योंकि वह हिंदी का लेखक है

    लेकिन अध्यक्ष हिंदीवाले थे

    कहा कोई बात नहीं

    बाक़ी भाषण हिंदी में होंगे

    अब पचास मिनट बचे और पंद्रह वक्ता हैं

    बोल लें हिंदी पाँच-पाँच मिनट

    लोगों को जब मारो तो वे हँसते हैं

    कि वाह कितना मेरा दर्द पहचाना

    बहुत दिन हो गए जिनसे मिले हुए

    उनमें से बहुत से अब मिलने के क़ाबिल नहीं रहे

    वे इतने बूढ़े हो चुके हैं कि उन्हें अब भविष्य के

    किसी मसले पर मुझसे कोई बात करने को

    नहीं रह गई है

    वे क्रोध में कहते हैं कुछ अनर्गल जो

    मैं समझ पाता नहीं सत्य या असत्य है

    जब मैंने कहा कि यह फ़िल्म घातक है

    इसमें मनुष्य को झूठा दिखाया है

    तो प्रधानमंत्री नाराज़ हुए—यह व्यक्ति मेरे विरुद्ध है

    छोटे क़द के बूढ़े जब अमीर होते हैं

    कितने दुष्ट लगत हैं

    हँसमुख जब रहते हैं

    बूढ़े होने के साथ थकती है बुद्धि

    किंतु देह में बल है

    इससे भय लगता है

    जीने का अच्छा ढंग बूढ़े होते-होते क्षय होते जाना है

    किंतु लोग देह स्वस्थ रखने पर बहुत ज़ोर देते हैं

    काले कुम्हलाए हुए काले रंगवाले नौजवानों की एक

    सभा में बैठा है बूढ़ा जिसे राज्यसभा में अच्छे स्वास्थ्य

    के बल पर हिस्सा मिलने की उम्मीद है

    कुछ चेहरों को हम सुंदर क्यों कहते हैं

    कयोंकि वे ताक़तवर लोगों के चेहरों से दो हज़ार साल से

    मिलते-जुलते चले आते हैं

    सुंदर और क्रूर चेहरे मशहूर हैं दूर-दूर तक

    देसी इलाक़ों में

    चेहरे वाक्य हैं कहानियाँ किताबें कविताएँ आवाज़ें हैं

    उन्हें देखो उन्हें सुनो

    मसनद लगाए हुए व्यक्ति ने बार-बार कहा है

    तुम उनमें से एक हो

    पर उसका मतलब है तुम और एक हो

    सब चेहरे सुंदर हैं पर सबसे सुंदर है वह चेहरा

    जिसे मैंने देर तक चुपके से देखा हो

    इतनी देर तक कि मैंने उसमें और उसके जैसे

    एक और चेहरे में अंतर पहचाना हो

    तू सुंदर है

    इलिए नहीं कि डरी हुई है

    तू अपने में सुंदर है

    यह आकर बैठा धीरे से

    घूरने लगा घबराया-सा

    मेरे यंत्रों को मुझसे आँख चुरा

    वे अद्भुत चमकीले डब्बे युद्ध के चित्र लेते थे

    घाव को असल से बढ़िया रंग देकर के

    कैमरे के उधर की बिलखती एक जाति के

    और चौदह बरस के लड़के के दरमियान

    मैं किसका प्रतिनिधित्व करता था

    जादूभरा कैमरा वह छूना चाहता था

    चौदह बरस की उम्र में वह जानना ही जानना चाहता था

    उसे इतना कौतूहल थी कि वह

    अपनी निर्धनता को भूल गया

    सहसा उसने जैसे मंत्रमुग्ध

    दोनों हाथों से वह बक्सा उठा लिया

    क्षण-भर मैं डरा फिर अभिजात स्नेह से

    कहा लो देखो मैं तुम्हें बतलाता हूँ

    उसने एक बार कैमरे पर हाथ फेरा

    और मुझे इतनी नफ़रत से देखा कि किसी ने

    कभी नहीं देखा था

    प्राचीन राजधानी अधमरे लोग

    वही लोग ढोते उन्हीं लोगों को

    रिक्शे में

    पंद्रल लाख आबादी दस लाख शरणार्थी

    रिक्शेवाले की पीठ शरणार्थी की पीठ

    एक-सी दीखती

    बस चेहरे हैं जैसे बलपूर्वक अलग-अलग किए गए

    एक बुढ़िया लपकी हुई जाती थी

    पीछे-पीछे चुप चलती थी औरत वह बहन थी

    आगे-आगे लाश पर पूरा कफ़न नहीं था

    वे उसे ले जाते थे जल्दी जला देने को

    वह लड़की भीख माँगती थी दबी-ढँकी

    एकाएक दूसरी भिखारिन को वहाँ देख

    वह उस पर झपटी

    इतनी थोड़ी देर को विनय

    और इतनी थोड़ी देर को क्रोध

    जर्जर कर रहा है उसके शरीर को

    अपने बच्चों का मुँह देखो इस साल

    और अगले साल के लिए उनके पुराने कपड़े तहाकर रख लो

    उनकी कहानी का अंत आज ही कोई जान नहीं सकता है

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 90)
    • संपादक : सुरेश शर्मा
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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