क्रॉसड्रेसर

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आर. चेतनक्रांति

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आर. चेतनक्रांति

और अधिकआर. चेतनक्रांति

    कुछ काम मैंने औरतों की तरह किए

    कुछ नहीं, कई

    और फिर धीरे-धीरे सारे

    सबसे आख़िर में जब मैं लिखने बैठा

    मैंने कमर सीधी खड़ी करके

    पंजों और एड़ियों को सीध में रखकर बैठना सीखा

    इससे कूल्हों को जगह मिली

    और पेट को आराम

    उसने बाहर की तरफ़ ज़ोर लगाना बंद कर दिया

    अब मैं अपने शफ़्फ़ाफ़ नाख़ूनों को

    आईने की तरह देख सकता था

    और उँगलियों को

    जो अब वनस्पति जगत का हिस्सा लग रही थीं

    नहीं, मुझे फिर से शुरू करने दें

    मैंने पहले औरतों को देखा

    उनकी ख़ुशबू को उनकी आभा को

    जो उनके उठकर चले जाने के बाद कुछ देर

    वहीं रह जाती थी

    उनके कपड़ों को

    जिसमें वे बिल्कुल अलग दिखती थीं

    मैंने बहुत सारी सुंदर लड़कियों को देखा, और उनसे नहीं

    उनके आस-पास होते रहने को प्यार किया,

    और फिर धीरे-धीरे नाख़ून पॉलिश को

    लिपिस्टिक को

    पायल को

    कंगन को

    गलहार को

    कमरबंद को

    और ऊँची एड़ी वाले सैंडिल को

    उन तमाम चीज़ों को जो सिर्फ़ औरतों के लिए थीं

    और जो उन्हें मर्दों के बावजूद बनाती थीं

    मर्द जो मुझे नहीं पता किसलिए

    बदसूरती को ताक़त का बाना कहता था

    और ताक़त को देह का धर्म

    मैंने बहुत सारे मर्दों को देखा

    जब मेरे पास देखने के लिए सिर्फ़ वही रह गए थे

    वे मोटरसाइकिल चला रहे थे

    जो तीर की तरह तुम्हारे भीतर से निकलती थी

    वे कविता भी लिख रहे थे

    और उसे भी कुछ दिन बाद मोटरसाइकिल बना लेते थे

    वे हर जगह कुछ कुछ चलाते थे

    जैसे संभोग में शिश्न को और दुनिया में हुकूमत को।

    मैंने उन्हें ख़ूब देखा

    जब वे बलात्कार कर रहे थे

    गर्भ चीर रहे थे

    होंठों और योनियों को भालों से दो फाड़ कर रहे थे

    मैंने उन्हें औरत होकर देखा

    डरकर सहमते चुप रहते हुए

    और उनके मामूलीपन को जानकर भी

    कुछ कहते हुए

    नहीं, मैं फिर भटक गया

    मुझे मर्दों की बात ही नहीं करनी थी

    मुझे थोड़े कम मर्दों की बात करनी थी

    जैसा मैं था

    और वे तमाम और जो मेरे जैसे थे

    मुझे उनकी बात करनी थी

    जो अपने मर्द होने से उकता उठे थे

    मर्दानगी के ठसक पर जिन्हें मंद-मंद औरताना हँसी आने लगी थी

    जो औरतों की सुंदरता के शिकार हो गए थे

    प्रेमी नहीं

    उन्होंने उस सुंदरता को ओढ़ लेना चाहा

    अपने काँटों-कैक्टसों के ऊपर,

    उन्होंने अपने कोनों को घिसा, गोल किया

    और उन पर रंग लगाए, अलग-अलग कई-कई

    और ध्वनियाँ कर्णप्रिय रूणुन-झुणुन और कणन-मणन

    मैंने एक स्कर्ट ख़रीदी जो कानों में कुछ कहती थी

    एक साड़ी जिसका आर था, पार

    एक जोड़ा रेशम के गुच्छे

    जिसमें मुझे अपना गोपनीय रखना था

    मैं यहीं रुक जाता अगर मुझे आगे रास्ता दिखता

    पर वहाँ एक राह थी जो आगे जाती थी

    वहाँ जहाँ स्त्री थी

    किसी दिन यूँ ही भूख की पस्ती में

    वह मुझे अपने भीतर से आती लगी

    फिर इसी तरह जब मैं बेमक़सद घूमने निकल गया

    और शहर की आपाधापी में जा फँसा

    मुझे वापस अपने पीछे कहीं दूर अँधेरे के बाद एक उजास-सी लगी

    हालाँकि भीड़ इतनी थी कि मैं गर्दन घुमा नहीं सकता था

    वह मुझे दिखी

    जिस सुबह मैं देर तक सिगरेट पीना भूल रहा

    और रक्त बिना मुझे बताए

    मेरी शिराओं को जगाने मेरे स्नायुओं को जिलाने लगा

    मैंने अचानक टाँगें महसूस कीं

    जो अन्यथा धुएँ की गर्द में गुम रहती थीं

    और मैं जानता नहीं था कि वे मेरे लिए क्या करती हैं।

    वह मुझे दिखी

    स्कर्ट की तहों से

    साड़ी की चुन्नटों में सरसराती

    गुनगुनाती अपने कान के, नाक के, पिंडलियों के घुँघरुओं में

    फिर इस सवाल को अनदेखा कर

    कि पहले स्त्री-देह बनी

    या स्त्री देह के वस्त्र

    घबराकर मैंने सिगरेट पी

    और दफ़्तर चला गया

    यह अंत था,

    या शायद नहीं,

    फिर भी एक बार के लिए इतना औरत होना काफ़ी था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 116)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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