लेखा-जोखा

lekha jokha

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    फिर भी दीर्घ फ़र्द की तफ़सील में

    पूरे जोड़ का परिणाम शून्य होता है

    समझ नहीं पाता वह आदमी

    यह किसका

    किस अदृश्य हाथ का षड्यंत्र है

    (समझा है ख़ुद को उसने जीवन भर अकेला;

    क़ैद है जराजीर्ण प्राचीन दुर्ग में

    असंदिग्ध चित्त उसका

    शत्रु माने बैठा है सारी दुनिया को)

    कहीं इसी का नाम भाग्य या नियति तो नहीं

    ज्योतिषी और दादाजी के मुँह से

    जो शब्द सुनकर

    मार खाई थी बचपन में हँसते-हँसते!

    संदिग्ध मन में फिर फ़र्द पलटता है

    जाँचता है वरक़-दर-वरक़

    आज अपनी सामर्थ्य के अनुसार

    सबकुछ तो किया है लिपिबद्ध यहाँ

    नाम-गाँव-जाति-गोत्र

    राशिफल, कुंडली और बंधु-बांधव

    सबकुछ लिखा है ख़ूब जतन से

    कुछ भी नहीं भूला :

    जितना भी जो भी कुछ

    पहनाया है इस देह को

    पैंट-शर्ट-धोती और कुर्ते

    खद्दर-रेशम-गेरुआ

    तरह-तरह के रंग और भाँति-भाँति के

    जितना भी जो भी कुछ

    खिलाया है इस देह को

    पखाल (पानी में डुबोकर रखा गया भात) से लेकर गो-माँस और

    काँजी से लेकर सोमरस तक

    खाद्य-पेय-चर्व्य-चोष्य-लेह्य आदि तमाम चीज़ें

    सारी तारीख़ें साल घटनाएँ और समय

    मिला हूँ, बातें की हैं जितने लोगों से

    जितनी आय जितना व्यय

    जितनी राहों से गुज़रा हूँ

    केंचुए-सा रेंगता हुआ

    झोंपड़ी से लेकर गगनचुंबी इमारतें

    जितने घरों में लिया है आश्रय

    फिर भी सूची का कुल जोड़

    जाने कैसे शून्य हो जाता है

    किसके षड्यंत्र से

    वह आदमी समझ नहीं पाता

    जाने कैसा अनजान-सा भय

    उसे अपनी चपेट में ले लेता है!

    बहुत डर लगता है उस आदमी को लेखा-जोखा से

    जब हिसाब-किताब को अंतिम रूप दिया जाता है

    तब अनदेखे अँधेरे हृदय-तल से

    लगभग अस्पष्ट स्वर में

    पूछता है सहसा कोई

    बता तो बेटे!

    बचपन में क्रोध का रंग कैसा था

    कैसा रंग था

    तेरे अनुराग, अभिमान, आद्य यौवन का

    कैसा रंग था प्रेम का?

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 4)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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