उर्दू को उत्तर

urdu ko uttar

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

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    रोचक तथ्य

    17 मई 1900 ई० में 'उर्दू की अपील' नाम से एक कविता छपी थी, उसका यह उत्तर है। छोटे लाट मैकडॉनाल्ड ने युक्त प्रदेश की अदालतों में नागरी अक्षर जारी किए, उस समय उर्दू के पक्षवालों ने यह जोश दिखाया था। ‘भारतमित्र’ द्वारा उसका यह उत्तर दिया गया था।


    न बीबी बहुत जी में घबराइए,
    सम्हलिए ज़रा होश में आइए।
    कहो क्या पड़ी तुम पे उफ़ताद है,
    सुनाओ मुझे कैसी फ़रियाद है।
    किसी ने तुम्हारा बिगाड़ा है क्या?
    सुनूँ हाल मैं भी उसका ज़रा।
    न उठती में यों मौत का नाम लो,
    कहाँ सौत, मत सौत का नाम लो।
    बहुत तुम पे हैं मरने वाले यहाँ,
    तुम्हारी है मरने की बारी कहाँ?
    बहुत बहकी-बहकी न बातें करो,
    न साए से तुम आप अपने डरो।
    ज़रा मुँह पे पानी के छींटें लगाव,
    यह सब रात-भर की ख़ुमारी मिटाव।
    तुम्हारी ही है हिंद में सबको चाह,
    तुम्हारे ही हाथों है सबका निबाह।
    तुम्हारा ही सब आज भरते हैं दम;
    यह सच है, तुम्हारे ही सिर की क़सम।
    तुम्हारी ही ख़ातिर हैं छत्तीस भोग,
    कि लट्टू हैं तुम पे ज़माने के लोग।
    जो हैं चाहते उन पे रीझो रिझाव,
    कोई कुछ जो बैंडी कहे सौ सुनाव।
    वही पहनो जो कुछ हो तुमको पसंद,
    कसो और भी चुस्त महरम के बंद।
    करो और कलियों का पाजामा चुश्त,
    वह धानी दुपट्टा वह नकसक दुरुस्त।
    वह दाँतों में मिस्सी घड़ी पर घड़ी,
    रहे आँख आईने ही से लड़ी।
    कड़े को कड़े से बजाती फिरो,
    वह बाँकी अदाएँ दिखाती फिरो।
    मगर इतना जी में रखो अपने ध्यान,
    यह बाज़ारी पोशाक है मेरी जान।
    जना था तुम्हें माँ ने बाज़ार1 में,
    पली शाहआलम के दरबार में।
    मिली तुमको बाज़ारी पोशाक भी,
    वह थी दोगले काट की फ़ारसी।
    वह फिर और भी कटती छटती चली,
    बजे रोज़ उसकी पलटती चली।
    वही तुमको पोशाक भाती है अब,
    नहीं और कोई सुहाती है अब।
    मगर एक सुन आज मतलबी बात,
    न पिछला वह दिन है न पिछली वह रात।
    किया है तलब तुमको सरकार ने,
    तुम आई हो अँग्रेज़ी दरबार में।
    सो अब छोड़िए शौक़ बाज़ार का,
    अदब कीजिए कुछ तो दरबार का।
    अदब की जगह है यह दरबार है,
    कचहरी है यह कुछ न बाज़ार है।
    यहाँ आई हो आँख नीची करो,
    मटकने चटकने पे अब मत मरो।
    यहाँ पर न झाँझों को झनकाइए,
    दुपट्टे को हरगिज़ न खिसकाइए।
    न कलियों की अब यां दिखाओ बहार,
    कभी यां पे चलिए न सीना उभार।
    वह सब काम कोठे पे अपने करो,
    यहाँ तो अदब ही को सिर पर धरो।
    यह सरकार ने दी है जो नागरी,
    इसे तुम न समझो निरी घाघरी।
    तुम्हारी यह हरगिज़ नहीं सौत है,
    न हक़ में तुम्हारे कभी मौत है।
    समझ लो अदब की यह पोशाक है,
    हया और इज़्ज़त की यह नाक है।
    अदब और हुर्मत की चादर है यह,
    चढ़ो गोद में मिस्ले मादर है यह।
    यही आपकी माँ की पोशाक थी,
    यह आज़ाद2 से पूछना तुम कभी।
    इनायत है तुम पे यह सरकार की,
    तुम्हें दूसरी उसने पोशाक दी।
    बुराई न इसकी करो दूबदू,
    बढ़ाएगी हरदम यही आबरू।
    पुरानी भी है वह तुम्हारे ही पास,
    उसे भी पहन लो रहो बेहिरास।
    करो शुक्रिया जी से सरकार का,
    कि उसने सिखाई है तुमको हया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 700)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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