पहले भी कम नहीं थीं मुश्किलें

pahle bhi kam nahin theen mushkilen

संदीप तिवारी

संदीप तिवारी

पहले भी कम नहीं थीं मुश्किलें

संदीप तिवारी

और अधिकसंदीप तिवारी

    ख़बरों में अभी भी पैदल चल रहे हैं लोग

    साइकिल से जा रहे हैं

    हज़ार-हज़ार किलोमीटर दूर अपने गाँव

    दिन भर, रात भर,

    भूख प्यास गर्मी में, लू में

    चले जा रहे हैं

    पहले भी कम नहीं थीं मुश्किलें

    रेल के दरवाज़े पे लटककर

    शौचालय के बगल में खड़े होकर

    जाते थे लोग

    ऊपर की सीटों में लपेटकर गमछा

    बैठने की जगह बनाते थे

    जहाँ सामान रखा जाना चाहिए

    वहाँ ख़ुद गठरी बन जाते थे

    पहले भी कम नहीं थीं बाधाएँ

    अपनी सीट का किराया देकर भी

    खड़े होकर जाते थे

    दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, हैदराबाद, लुधियाना, चंडीगढ़

    और मंत्रालय ने टिकट काउंटर पर लिखाया

    कि इनका साठ प्रतिशत किराया

    कोई और अदा करता है

    कोई ठीक-ठीक आँकड़ा है किसी भी सरकार के पास?

    कि वे बंबई में कहाँ थे

    दिल्ली में किधर

    हैदराबाद, लुधियाना में कहाँ रहते थे

    चंडीगढ़ में काम तो करते थे

    पर क्यों रहते थे चंडीगढ़ के पार

    इस महामारी से पहले भी

    वे मर-खप रहे थे, अपने-अपने आकाश में

    देर रात अपने-अपने पिंजरे में

    वे लौट आते थे सोने

    कोई आँकड़ा है किसी भी सरकार के पास?

    कि किस नल का पानी पीते थे ये लोग

    शौच के लिए सुबह-सुबह

    कैसे खड़े रहते थे घंटों

    लंबी-लंबी क़तारों में

    खाते भी थे या भूखे पेट सो जाते थे

    रेल में मेट्रो में बसों में

    उनकी ही जेब कटी

    वे ही ठगे गए हर जगह

    बचा-खुचा रुपया मोजे में छिपाकर

    लौटते थे गाँव

    बहुत उदास होकर

    यह महामारी तो अभी-अभी आई है

    उनके हर दिन की महामारियों का

    कोई हिसाब नहीं!

    कोई सिरा है कोई अंत!

    कुछ लोग कह रहे हैं कि

    वे अबकी नहीं लौटेंगे शहरों महानगरों की ओर

    लौटेंगे

    फिर लौटेंगे

    जब तक पेट है आते-जाते ही रहेंगे

    वही बनाएँगे घर

    वही ढोएँगे सामान

    सरकार ठेकेदार दुकानदार मालिक सभी

    फिर से बुलाएँगे उन्हें

    आगामी महामारियों का अभ्यास कराने के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : संदीप तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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