लड़कियाँ जवान हो रही हैं

laDkiyan jawan ho rahi hain

अनुपम सिंह

अनुपम सिंह

लड़कियाँ जवान हो रही हैं

अनुपम सिंह

और अधिकअनुपम सिंह

    हम लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं

    अपने छोटे-से गाँव में

    लड़कियाँ और भी थीं

    छोटी अभी ज़्यादा छोटी थीं

    जो बड़ी थीं

    वे ब्याह दी गई थीं सही-सलामत

    इस तरह हम ही लड़कियाँ थीं

    जिनकी उम्र बारह-तेरह की थी

    हम सड़कों की बजाय

    मेड़ों के रास्ते आतीं-जातीं

    चलती कम

    उड़ते हुए अधिक दिखतीं

    गाँव मे नई-नई ब्याह कर आईं

    दुल्हनों की भी

    सहेलियाँ बन रही थीं हम

    किसी के शादी-ब्याह में

    हम बूढ़ी और अधेड़ उम्र की

    औरतों से अलग बैठतीं

    और अपने ज़माने के गीत गातीं

    हमारी हँसी गाँव में भनभनाहट की तरह फैल जाती

    गाँव के छोटे-भूगोल में

    हमारे जीवन के विस्तार का समय था

    हम अपनी देह के

    उभारों के अनुभव से

    एक साथ झुककर चलना सीख रही थीं

    कभी तो जीवन को

    हरे चने के खटलुसपन से भर देतीं

    तो कभी माँ की बातों से उकताकर

    आधे पेट ही सो जाती थीं

    हम उड़ना भूलकर

    भीड़ में बैठना सीख रही थीं

    भीड़ से उठतीं, तो कनखियों से

    एक दूसरे को पीछे देखने के लिए कहतीं

    जब कभी हमारे कपड़ों में

    मासिक धर्म का दाग़ लग जाता

    तो देह के भीतर से लपटें उठतीं

    और चेहरे पर राख बन फैल जातीं

    हम दाग़दार चेहरे वाली लड़कियाँ

    उम्र के कच्चेपन में सामूहिक प्रार्थनाएँ करतीं

    हे ईश्वर! हमारी इतनी-सी बात सुन लो

    हम लड़कियाँ अनेक प्रार्थनाएँ करती हुईं

    जवान हो रही थीं

    लड़कियाँ जवान हो रही थीं

    उनके हिस्से की धूप, हवा, रात

    और रोशनियाँ कम हो रही थीं

    अब हम बाग़ में नहीं दिखतीं

    गिट्टियाँ खेलते हुए भी नहीं

    हम घरों के पिछवाड़े

    लप्प-झप्प में

    एक दूसरे से मिल लेती हैं

    दीवार से चिपककर ऐसे बतियातीं

    जैसे लड़कियाँ नहीं छिपकलियाँ हों हम

    घरों के बड़े कहीं चले जाते तब

    बूढ़ी औरतें चौखट पर बैठ

    हमारी रखवाली करतीं

    किसी राजकुमार के इंतिज़ार

    और अनिवार्य हताशा में

    हरे कटे पेड़ की तरह उदास होतीं

    हम लड़कियाँ जवान हो रही हैं...

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुपम सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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