कुछ भी अलौकिक नहीं होता

kuch bhi alaukik nahin hota

बसंत त्रिपाठी

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कुछ भी अलौकिक नहीं होता

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    कुछ भी अलौकिक नहीं होता

    वे मुलाक़ातें वे कंधे

    कि पल भर के लिए

    जिसमें रख दिया था

    अपने समस्त दुखों का भार

    ठीक उस एक पल

    ऐसा लगा था जैसे

    हमारा कुल वज़न एक पंख से भी कम है

    वह तयशुदा नहीं था

    लेकिन अलौकिक भी नहीं

    सुबह काम के लिए जाते हुए

    जब आप हड़बड़ी में थे

    एक गाड़ी ने कुचलते-कुचलते बचा ही लिया था आपको

    चौराहे पर किसी अपरिचित ने समय पूछा था

    स्कूल के किसी विद्यार्थी ने हाथ दिखा कर रोका

    और अगले मोड़ तक पहुँचाने की गुज़ारिश की थी

    बहुत बड़ी नहीं थी ये पूरी हुई ज़रूरतें

    लेकिन हम काम तो आए ही थे दूसरों के

    और दूसरे हमारे

    अभी चेहरा इतना विकृत नहीं हुआ

    कि समय भी पूछा जा सके

    या लिफ़्ट माँगने से लोग डरें

    आपके चेहरे में कुछ ऐसा ज़रूर है

    सहज और आत्मीय,

    कि भिखारी ने बिना डरे आपसे एक रुपए माँगा

    सड़क बनाते उन मज़दूरों के एक साथी ने

    इशारा कर दाहिने ओर से निकल जाने को कहा था

    उसका आपसे कोई संबंध नहीं था सिवाय मनुष्यता के

    हॉर्न देने पर आपको साइड दी थी एक गाड़ीवान ने

    शायद उसने जान लिया था कि आप जल्दी में हैं

    पत्नी का दुपट्टा इससे पहले कि चक्के में फँसता

    सतर्क कर दिया था किसी ने पीछे से तेज़ी से आकर

    सोचिए कि इस तरह की तेज़ी

    जानलेवा भी हो सकती थी उसके लिए

    लेकिन उसने ऐसा किया

    और आपने भी उसे मन ही मन धन्यवाद दिया

    जो सब्ज़ी अभी आपने चटखारे लेकर खाई

    गृहिणी की तारीफ़ की

    उसे उगाया एक अपरिचित किसान ने

    हो सकता है कि उसके किसी निकट संबंधी ने

    हाल-फिलहाल आत्महत्या की हो

    ठेले में ढोकर उसे एक ने

    बिल्कुल आपके दरवाज़े पर बेचा

    इससे पहले कि जूते का एक तल्ला

    पूरी तरह अलग हो जाता

    पुरानी छतरी के साए में बैठे उस बूढ़े मोची ने

    आपको फिर चलने की सुविधा दी

    शायद आपने देखा ही होगा

    कि वह मुड़े-तुड़े बर्तन में खाना खा रहा था उस वक़्त

    और उसके चश्मे की एक बाँह भी टूटी हुई थी

    आपके और उसके बीच केवल पाँच रुपए का सबंध भर नहीं है

    वह तल्ले पर कील ठोंकने से

    मना भी कर सकता था

    सोचिए कि आप एक जूता हाथ में लिए

    कितने हास्यास्पद दिखते

    और कितने लाचार भी

    क़दम-क़दम बहुराष्ट्रीय लुटेरों

    और ताक़तवर दलालों की इस मंडी में

    किसी ने एक घर का पता पूछा था

    कितना संतुष्ट हुए थे यह जानकर

    कि ऐसी बहुत-सी जगहें हैं

    जिन्हें आप जानते हैं अब भी

    आप तब भी हतप्रभ रह गए थे

    जब दुकानदार ने आपके एक अतिरिक्त नोट को

    वापस कर दिया था

    आपका हिसाब दुरुस्त करते हुए

    यह सब तो अनायास था तयशुदा

    ही दिव्य या अलौकिक

    यह सब कुछ उसी संसार में घटित हुआ था

    जिसे छोड़कर चले जाने की बात

    हताशा और अवसाद में आपने कई बार सोची थी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : बसंत त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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