द्रौपदी-दुकूल

draupadi dukul

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

द्रौपदी-दुकूल

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    राजसूय के समय देखकर

    विभव पांडवों का भारी,

    ईर्ष्या-वश मन में दुर्योधन

    जलने लगा दुराचारी!

    तिस पर मय कृत सभा-भवन में,

    जो उसका अपमान हुआ,

    कुरुक्षेत्र के भीषण रण का

    मानों वही विधान हुआ॥

    धर्मराज का सभा-भवन वह

    हृदय सभी का हरता था,

    उन्नत नभस्थली का विधु-मुख

    मानों चुंबन करता था।

    चित्र विचित्र रुचिर रत्नों से

    मंडित यों छवि पाता था—

    इंद्र-धनुष-भूषित मेघों को

    नीचा-सा दिखलाता था॥

    वह अद्भुत छवि से “अवनी का

    इंद्र-भवन” कहलाता था;

    अपने कर्त्ता के कौशल को

    भली भाँति दरसाता था।

    जल में थल, थल में जल का वह

    भ्रम मन में उपजाता था;

    इसीलिए वह भ्रांत जनों की

    बहुधा हँसी कराता था॥

    इसी भ्रांति से जल विचार कर

    वहाँ सुयोधन ने थल को,

    ऊँचा किया वसन-वर अपना

    करके चपल दृगंचल को।

    तथा अचल निर्मल नीलम सम

    था ललाम जल भरा जहाँ;

    गमन शील हो थल के भ्रम से

    वह उसमें गिर पड़ा वहाँ॥

    उसकी ऐसी दशा देख कर

    हँस कर बोले भीम वहीं—

    “अंधे के अंधा होता है,

    इसमें कुछ संदेह नहीं!”

    इस घटना से ऐसा दुस्सह

    मर्मांतक दु:ख हुआ उसे;

    जब तक जीवित रहा जगत् में

    फिर कभी सुख हुआ उसे॥

    वीर पांडवों से तब उसने

    बदला लेने की ठानी;

    किंतु प्रकट विग्रह करने में,

    कुशल नहीं अपनी जानी।

    तब उनका सर्वस्व जुए में

    हरना उसने ठीक किया—

    कार्याकार्य विचार करता

    स्वार्थी जन का मलिन हिया॥

    भीष्म पितामह और विदुर ने

    उसको बहु विध समझाया;

    किंतु एक उपदेश उनका

    उस दुर्मति के मन भाया।

    उनका कहना वन-रोदन-सा

    उसके आगे हुआ सभी—

    मन के दृढ़ निश्चय को विधि भी

    पलटा सकता नहीं कभी॥

    “जुआ खेलना महापाप है”—

    करके भी यह बात विचार,

    दुर्योधन के आमंत्रण को

    किया युद्धिष्ठिर ने स्वीकार।

    हो कुछ भी परिणाम अंत में

    धर्मशील वर-वीर तथापि,

    निज प्रतिपक्षी की प्रचारणा

    सह सकते हैं नहीं कदापि॥

    छल से तब शकुनी ने उनका

    राजपाट सब जीत लिया;

    भ्राताओं के सहित स्व-वश कर

    सब विध विधि-विपरीत किया।

    फिर कृष्णा का पण करने को

    प्रेरित किए गए वे जब;

    हार पूर्ववत् गए उसे भी

    रख कर द्यूत-दाँव पर तब॥

    इस घटना से दुर्योधन ने

    मानों इंद्रासन पाया;

    भरी सभा में उस पापी ने

    पांचाली को बुलवाया।

    होने से ऋतुमती किंतु वह

    सकी उस समय वहाँ,

    भेजा इस पर दु:शासन को

    होकर उसने कुपित महा॥

    राजसूय के समय गए थे

    जो मंत्रित जल से सींचे;

    जाकर वही याज्ञसेनी के

    कच दु:शासन ने खींचे!

    बलपूर्वक वह उस अबला को

    वहाँ पकड़ कर ले आया;

    करने में अन्याय हाय! यों

    नहीं तनिक भी सकुचाया॥

    प्रबल-जाल में फँसी हुई ज्यों

    दीन मीन व्याकुल होती,

    विवश विकल द्रौपदी सभा में

    आई त्यों रोती-रोती।

    अपनी यह दुर्दशा देखकर

    उसको ऐसा कष्ट हुआ;

    जिसके कारण ही पीछे से

    सारा कुरुकुल नष्ट हुआ॥

    दुर्योधन-दु:शासन ने यह

    समझी निज सुख की क्रीड़ा,

    किंतु पांडवों ने इस दु:ख से

    पाई मर्मांतक पीड़ा।

    तो भी वचन-बद्ध होने से

    ये सब पापाचार सहे;

    मंत्रों से कीलित भुजंग सम

    जलते ही वे वीर रहे॥

    “मुझे एक वस्त्रावस्था में

    केश खींच लाया जो हाय!

    दुष्ट-बुद्धि दु:शासन का वह

    प्रकट देख कर भी अन्याय।

    सभ्य, ख्यातनामा ये सारे

    सभा मध्य बैठे चुपचाप!

    तो क्या पुण्य-हीन पृथिवी में

    शेष रहा अब केवल पाप?”

    सुनकर रुदन द्रौपदी का यों

    कहा कर्ण ने तब तत्काल—

    “निश्चय सभी स्वल्प है जो कुछ

    हो ऐसी असती का हाल

    अच्छा, दु:शासन! यह जिसका

    बार-बार लेती है नाम,

    लो उतार इसके शरीर से

    वह भी एक वस्त्र बेकाम॥”

    कर्ण-कथन सुन दु:शासन ने

    पकड़ लिया द्रौपदी-दुकूल,

    किया क्रोध से भीमसेन ने

    प्रण तब यों अपने को भूल—

    “दु:शासन का उर विदीर्ण कर

    शोणित जो मैं करूँ पान,

    तो अपने पूर्वज लोगों की

    पा सकूँ मैं गतिप्रधान॥”

    ग्रसी राहु के चंद्रकला-सी

    कृष्णा तब अति अकुलानी,

    एक निमेष मात्र में उसने

    निज लज्जा जाती जानी।

    ऐसे समय एक हरि को ही

    अपना रक्षक जान वहाँ;

    लगी उन्हीं को वह पुकारने

    धर के उनका ध्यान वहाँ॥

    “हे अंतर्यामी मधुसूदन!

    कृष्णचंद्र! करुणासिंधो!

    रमा-रमण, भय-हरण, दयामय,

    अशरणशरण, दीनबंधो!

    मुक्त अनाथिनी की अब तक तुम

    भूल रहे हो सुधि कैसे?

    नहीं जानते हो क्या केशव!

    कष्ट पा रही हूँ जैसे॥

    तनिक देर में ही अब मेरी

    लुटी लाज सब जाती है,

    क्षण-क्षण में आपत्ति भयंकर

    अधिक-अधिक अधिकाती है।

    करती हुई विकट तांडव-सी

    निकट मृत्यु यह आती है,

    केवल एक तुम्हारी आशा

    प्राणों को अटकाती है॥

    दु:शासन-दावानल-द्वारा

    मेरा हृदय जला जाता,

    बिना तुम्हारे यहाँ कोई

    रक्षक मुझे दृष्टि आता।

    ऐसे समय तुम्हें भी मेरा

    ध्यान नहीं जो आवेगा,

    तो हा! हा! फिर अहो दयामय!

    मुझको कौन बचावेगा?

    क्रिया-हीन ये चित्र-लिखे से

    बैठे यहाँ मौन धारे;

    मेरी यह दुर्दशा सभा में

    देख रहे गुरुजन सारे!

    तुम भी इसी भाँति सह लोगे

    जो ये अत्याचार हरे!

    निस्संशय तो हम अनाथ जन

    बिना दोष ही हाय! मरे॥

    किसी समय भ्रम-वश जो कोई

    मुझ से गुरुतर दोष हुआ,

    हो जिससे मेरे ऊपर यह

    ऐसा भारी रोष हुआ।

    तो सदैव के लिए भले ही

    मुझको नरक-दंड दीजे;

    किंतु आज इस पाप-सभा में

    लज्जा मेरी रख लीजे॥

    सदा धर्म-संरक्षण करने

    हरने को सब पापाचार,

    हे जगदीश्वर! तुम धरणी पर

    धारण करते हो अवतार।

    फिर अधर्म-मय अनाचार यह

    किस प्रकार तुम रहे निहार,

    क्या वह कोमल हृदय तुम्हारा

    हुआ वज्र मेरी ही वार?

    शरणागत की रक्षा करना

    सहज स्वभाव तुम्हारा है;

    वेद-पुराणों में अति अद्भुत

    विदित प्रभाव तुम्हारा है।

    सो यदि ऐसे समय मुझ पर

    दया-दृष्टि दिखलाओगे,

    विरुद-भ्रष्ट होने से निश्चय

    प्रभु! पीछे पछताओगे॥

    जब जिस पर जो पड़ी आपदा

    तुमने उसे बचाया है,

    तो फिर क्यों इस भाँति दयामय!

    तुमने मुझे भुलाया है?

    इस मरणाधिक दु:ख से जो मैं

    मुक्ति आज पा जाऊँगी,

    गणिका, गज, गृध्रादिक से मैं

    कम कीर्ति फैलाऊँगी॥

    जो अनिष्ट मन से भी मैंने

    नहीं किसी का चाहा है;

    जो कर्तव्य धर्मयुत अपना

    मैंने सदा निबाहा है।

    तो अवश्य इस विपत्-सिंधु से

    तुम मुझको उद्धारोगे;

    निश्चय दया-दृष्टि से माधव!

    मेरी ओर निहारोगे॥

    करती हुई विनय यों प्रभु से

    कृष्णा ने दृग मूँद लिए;

    क्षण भर देह-दशा को भूले

    खड़ी रही वह ध्यान किए।

    तब करुणामय कृष्णचंद्र ने

    दूर किया उसका दु:ख घोर;

    खींच-खींच पट हार गया पर

    पा सका दु:शासन छोर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 74)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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