कछार में सोई वह

kachhar mein soi wo

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

कछार में सोई वह

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    म्युनिसिपैलिटी के पोखरे के कछार में पड़ी वह ऊँघ रही थी

    और वसंत धीरे-धीरे पतझड़ के केंचुल से

    बाहर निकलकर

    लोगों के घरों में

    रोशनदानों और खिड़कियों के सहारे

    उतर रहा था।

    लेकिन उसी शहर में

    दीवारों और छप्परों से अनावृत

    उसके पास कभी नहीं पहुँचा वसंत

    जो लेटी रहती थी, खुले कछार में

    रोज़ सुबह स्कूल आते-जाते उसे देखता था

    कि वह कितनी निर्विकार भाव से

    शहर के बीचोबीच

    उसके आपाधापी से बेख़बर

    सुख-चैन की नींद में डूबी है।

    उसे नहीं फ़िक्र है

    बदलती सरकार से,

    या किसी सरकारी क़रार से।

    वह होता होगा किसी और के लिए

    उसे क्या मतलब

    उसे तो चाहिए,

    कि किसी के घर चूल्हा जले

    और दो-चार ज़्यादा रोटियाँ सेंक दी जाएँ

    जो उसे अगले दिन घर से बाहर पड़ी मिल सकें।

    एक दिन मैं बग़ल वाले अंकल जी से पूछ ही बैठा कि

    यह पगली है कौन

    कहाँ से आई है

    तो पता चला कि

    वह उन्हीं के गाँव के वकील साहब की बहू है

    जिसे छोड़कर उनका लड़का

    किसी मल्टीप्लेक्स वाली मचलती युवती की बाँहों में डूब गया है

    और यह पगली इंतज़ार करते-करते

    घर से बाहर, गाँव से आगे, शहर चुकी है।

    अब उसे नहीं पता है कि कैसे सावन में पहनी जाती हैं हरी-हरी चूड़ियाँ

    और रचाई जाती है हाथों पर मेहँदी।

    वह भूल चुकी है कि कैसे सँवारे जाते हैं बाल

    बालम के आने के इंतज़ार में।

    अब वह किसी की बहू नहीं रही

    ही किसी की पत्नी।

    अब तो वह बन चुकी है

    मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चों का खिलौना

    और कुछ नौजवान शराबी लफ़ंगों के लिए

    अपने ही जिस्म की दान-दात्री।

    उसे तहसीलदार साहब के घर मिल जाता है ब्रेड

    और मास्टर साहब के चौखट पर सब्ज़ी

    साथ-ही-साथ

    म्युनिसिपैलिटी ऑफ़िस के सामने

    लगे नल से टप्-टप् गिरता पानी।

    वह रोज़-ब-रोज़ किसी किसी

    बड़े महासागर से गुज़रती है

    जहाँ होते हैं

    मुहल्ले के कुत्ते

    उसके प्रतिद्वंद्वी

    जो उसके द्वारा इकट्ठे किए गए

    रोटी के टुकड़ों को चाहते हैं झपटना

    अब वह नन्हे-नन्हे बच्चों में ही

    बिताती है अपनी दिनचर्या

    किसी को दुलारती है तो

    किसी-किसी को फुफकारती भी है

    शायद इसलिए कि अब वह माँ बनने वाली है

    उस बच्चे की

    जिसे दुलराएगा खुला आकाश

    और सँवारेंगी ठंडी-ठंडी हवाएँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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