जो कविताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं

jo kawitayen kabhi khatm nahin hotin

पराग पावन

पराग पावन

जो कविताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं

पराग पावन

और अधिकपराग पावन

    मैं बहुत पहले निकल आया था अपने गाँव से

    मेरे हाथों रोपे गए नीम और शीशम बिलखते रहे

    मेरी पाली मछली छटपटाती रही गहरे जल में

    अपने ही लगाए बाँस को दुपहरी में चिग्घाड़ते छोड़कर

    मैं अपने गाँव से बहुत पहले निकल आया था

    माँ ने कहा—

    यह चमरौटी नर्क का नाट्यस्थल है, चले जाओ!

    दादा ने कहा—

    प्रत्येक पहली यात्रा ऊब की मृत्यु है, चले जाओ!

    भाई ने कहा—

    देह पर सर है तो ताज भी हो, चले जाओ!

    मैं इतना आज्ञाकारी था

    कि मौसम के इशारे पर भी

    खाद लेकर खेतों के लिए निकल जाता

    मैं नर्क के नाट्यस्थल से

    ऊब की मृत्यु के लिए

    सर पर ताज ढूँढ़ने

    अपने गाँव से बहुत पहले निकल आया था।

    जो कविताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं

    उन्हें कहीं भी ख़त्म किया जा सकता है

    बाक़ी बची बातें सिर्फ़ घटनाएँ होती हैं

    ऐसी ही एक घटना है—

    मेरी एक भैंस थी

    उम्र में मुझसे बड़ी और स्वभाव में विपरीत

    वह आक्रामक थी पर मेरे लिए नहीं

    उसका नाम मँगरी था

    वह मुझे तालाब नहलाने ले जाती

    ताल-मैदानों में टहलाने ले जाती

    कभी इसरार करती—

    मेरी नाँद के पास खड़े रहो

    और मैं...

    मैं तो आज्ञाकारी था

    मैं कभी देर-सबेर घर लौटता

    वह दूर से निहारकर प्रेमिल आवाज़ करने लगती

    खूँटे से दो-दो हाथ करने को तैयार हो जाती

    मैंने जब गाँव छोड़ा

    तो अपने नीम, अपनी मछली, अपने बाँस के साथ

    उसे भी छोड़ आया था

    दो दिन तक ढंग से चारा खाने के लिए

    बीच-बीच में मैं अपने गाँव जाता रहा

    धीरे-धीरे लोग मुझे कम पहचानने लगे

    सबसे पहले बच्चों ने अपरिचित कहा

    मैं मुस्कुराकर आगे बढ़ गया

    तब नई ब्याहताओं ने परदेसी कहा

    मैं अपना परिचय देता और संतुष्ट होता रहा

    कई बरस तक मेरी भैंस मँगरी ने

    कुछ नहीं कहा

    मैं गाँव आता-जाता रहा

    और अपरिचय को व्यावहारिक-स्वाभाविक मानकर

    पूरी ताक़त से ध्वस्त करता रहा

    पर उस बार जब मैं गाँव पहुँचा

    घर पहुँचकर सबसे पहले मँगरी के खूँटे तक गया

    उसने नाँद से सर निकाला

    और अपने स्वभाव के अनुकूल

    ग़ुस्से में मुझे तरेरा

    फिर मुझे मारकर अनंत शून्य में टाँग देने के लिए

    अपनी सींग आसमान की तरफ़ झोंक दिया

    यह पहली बार था जब मँगरी ने मुझे नहीं पहचाना

    मैं एक कातर फ़र्ज़ी मुस्कान लिए

    उसकी नाँद से हट गया

    तब से आज तक मुझे कई काग़ज़ातों पर

    स्थायी पता लिखना पड़ता है

    पर स्थायी पता लिखते हुए

    अब मेरे हाथ काँपते हैं

    और घर की ग़रीबी के हाथों

    क़साई को बेच दी गई बूढ़ी मँगरी

    मेरी आत्मा में मड़िया मारती है

    प्यारे दोस्तो!

    जो कविताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं

    उन्हें कहीं भी ख़त्म तो किया जा सकता है

    पर उन्हें किसी भी मौसम

    किसी भी मिट्टी

    किसी भी धुन में शुरू होने से

    कभी रोका नहीं जा सकता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पराग पावन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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