रामबचन भगत

ramabchan bhagat

जितेंद्र श्रीवास्तव

जितेंद्र श्रीवास्तव

रामबचन भगत

जितेंद्र श्रीवास्तव

और अधिकजितेंद्र श्रीवास्तव

    सब ठीके है बाबू

    दिन भर करते हैं।

    तो शाम को खाते हैं

    इसमें क्या है नया

    जो बताऊँ आपको

    वैसे जब भी मिलता हूँ आपसे

    तब भी चाहूँ तो

    याद आते हैं

    तीस-पैंतीस साल पुराने दिन

    जिनमें लौटना भी चाहूँ

    तो नहीं लौट सकता

    अब गाँव बचा खेती

    सब समा गया नदी के पेट में,

    इतना कहकर वह छिड़कने लगता है सब्ज़ियों पर पानी

    छाँटने लगता है भिंडी

    फिर कछ याद करते हए बताता है

    बीस बरस हुए दिल्ली में सब्ज़ी बेचते

    यहाँ कभी नहीं मिला सरपुतिया

    और तो और

    यहाँ तरोई और नेनुआ

    दोनों को कहते हैं तोरी

    शुरू-शुरू में बहुत मुश्किल हुआ था मुझे

    फिर धीरे-धीरे

    शब्द समा गए भीतर

    अब कोई तोरी माँगे या घिया

    चटपट तौल देता हूँ

    यह और बात है

    कि जब कोई पूछता है घेवड़ा, तरोई, लौकी या कोहड़ा

    तो पल भर निहार लेता हूँ उसका चेहरा,

    वैसे आपको कितने दिन हुए बाबू

    अपने गाँव गए?

    अचानक अकबका जाता हूँ

    उसके सवाल पर

    कुछ समय बताकर

    चल देता हूँ वहाँ से

    पर उसका सवाल नहीं छोड़ता पीछा

    धीरे-धीरे

    डगरता है मेरे साथ

    मेरा गाँव सलामत है

    मेरे खेत सलामत हैं

    मेरे भाई-बंधु सलामत हैं

    उसी देवरिया के एक और गाँव में

    जिसके किसी गाँव में

    कभी रहता था रामबचन भगत

    जहाँ से उजड़कर

    उसका परिवार बस गया था बहराइच में कहीं

    हालाँकि वह अब भी

    अपने को बताता है देवरिया का ही

    एक बार मैंने यूँ ही पूछा था

    घर में क्या बोलते हो

    भोजपुरी कि अवधी कि भूल गए सब कुछ?

    उसने चट जवाब दिया था

    गाँव छूटा

    लोग छूटे

    लेकिन देह तो थी अपने ही पास

    जिसमें मुँह भी था

    होठ और जीभ समेत

    फिर कैसे भूल जाती भाषा!

    वैसे देखिए तो कितना अजब है

    कि हम दोनों भोजपुरिये हैं

    फिर भी नहीं बोल रहे भोजपुरी!

    क्या ऐसा नहीं हो सकता बाबू

    कि जब भी मिलें हम

    इस तरह मिलें

    जैसे मिलती हैं

    अलग-अलग दिशाओं में ब्याही दो सखियाँ

    वर्षों बाद किसी मेले में

    वैसे आपको किसी मेले की याद है बाबू

    जिसमें आपने खाया हो गट्टा

    देखा हो सर्कस

    चढ़े हों बड़का झूले पर?

    वैसे छोड़िये, यह फ़ालतू सवाल है

    जीवन में बहुत बवाल है

    वरना कौन भूलता है बेफिकिर दिनों को

    आप भी नहीं भूले होंगे

    पर याद भी नहीं करते होंगे हरदम

    आख़िर कौन है इतना फुरसतिया!

    वैसे देखिए तो अच्छा भी है यही

    क्योंकि बहुत मार-काट है

    इन दिनों

    जिसे देखो

    वही धकियाते जा रहा है दूसरे को

    ऐसे में महज़ इतना हो तो भी अच्छा है

    कि काम के बाद जब आप पोंछ रहे हों पसीना

    तो बस याद आए

    पसीना पोंछता पिता का चेहरा

    और यह कि

    दुनिया सिर्फ़ कुछ लोगों के लिए नहीं बनी है

    यहाँ सबको हक़ है जीने का

    अपनी भाषा

    अपनी बोली

    और अपने श्रम की आज़ादी के साथ

    उस दिन भी मैंने

    सिर सहमति में हिलाया था

    सोचते हुए घर आया था

    बिल्कुल आज की तरह।

    स्रोत :
    • रचनाकार : जितेंद्र श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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